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________________ ११२ निगमागमामला एकोऽविभागी अणुः यावत् क्षेत्रं रुणद्धि तावत् क्षेत्रस्य 'प्रदेश' इति संज्ञा । लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एव धर्माधर्मयोः, तयोर्लोकाकाशस्य व्याप्य स्थितत्वात । प्रत्येकजीवस्यापि ताबन्त एव प्रदेशाः सन्ति, लोकपूरणसमुद्घातकाले सर्वप्रदेशस्य तत्र विसर्पणं कृत्वा व्याप्तत्वात। शुद्धपुद्गलपरमाणोः एका देश एय, स्कंधेषु च द्विप्रदेशमादिं कृत्वा अनन्तपर्यन्ता भवन्ति इति। ननु धर्माद्यमूर्तद्रव्येषु प्रदेशकल्पना औपचारिको, निरवयवस्यात् पुद्गलपरमाणुना मीयमानत्वाच्च ? तन्न; मुख्या एप प्रदेशा एष वर्तन्ते, श्रते निरूप्यमाणत्वात् । तथा पात्यन्तपरोक्षा इमे धर्मादयः, तत एषां मुख्या अपि प्रदेशाः निर्णतुम् अवधारयितुं था न शक्यन्ते, तथापि न सन्ति इति न । श्रीमद्भट्टाकलंकदेवेरप्युक्तमेतत्---- एक अविभागी परमाण जितने क्षेत्र को रोकता है. उतने क्षेत्र का 'प्रदेश' यह नाम है । लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य में उतने ही हैं, क्योंकि ये दोनों द्रव्य लोकाकाश को व्याप्त करके स्थित हैं। प्रत्येक जीव के भी उतने ही प्रदेश हैं, क्योंकि लोकपूरण समुद्घात के समय वे सर्वप्रदेश लोकाकाश में फैल कर व्याप्त हो जाते हैं। शुद्ध पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी ही है और स्कंधों में दो प्रदेश से लेकर अनंत पयंत प्रदेश होते हैं। अर्थात् कोई स्कंध दो प्रदेशी, कोई तीन प्रदेशी, कोई चार प्रदेशी और कोई संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी और कोई अनंत प्रदेशी होते हैं । शंका---इरा धर्मद्रव्य आदि अमतिक द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना औपचारिक है, क्योंकि ये अवयवरहित हैं और पुद्गल परमाणु के द्वारा ये प्रदेश मापे जाते हैं-गिनती किये जाते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, इन द्रव्यों में मुख्य ही प्रदेश हैं, क्योंकि शास्त्र में उनका निरूपण है। दूसरी बात यह है कि ये धर्म आदि द्रव्य अत्यंत परोक्ष हैं, इसलिये इनके मुख्य भी प्रदेशों का निर्णय करना या अवधारण करना शक्य नहीं है, फिर भी 'प्रदेश' नहीं हैं ऐसी बात नहीं है । श्रीमान् भट्टाकलंक देव ने भी इस बात को कहा है
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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