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________________ नियमसार-प्राभृतम त एव मुनयः स्थायें साधयन्तीति ज्ञात्वा प्रत्यहं प्रतिक्षणं चापीयं गाथा स्मर्तव्या चितनीयाभ्यसनीया च तावत्, यावन्मनोवृत्तिनिकतानं न गृह्णीयात् ॥१०२॥ तामेव भावनां द्रयितुं पुनरप्याचार्या ध्रुवन्ति जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोस्सरे । सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥१०३।। स्याहावचन्द्रिका मे जं किंचि दुच्चरितं-ममाज्ञानात प्रमावाद्वा ज्ञातमज्ञातं यत्किमपि दुश्चरित्रं मनोवाक्कायकृतं कारितमनुमोदितं वा, सव्वं तिविहेण वोस्सरे-तत्सर्वं मनोवचनकायेन व्युत्सृजामि । तिविहं तु सामाइयं सव्वं णिरायारं करेमि-त्रिविध-मनोवाक्कायगतं कृतकारितानमतं वा सामायिक सर्व निराकारं निविकल्पं निरतिचारं वे ही मुनि अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं--ऐसा जानकर प्रतिदिन और प्रतिक्षण भी इस गाथा का स्मरण करना चाहिये, इसीका चिंतन करना चाहिये और इसोका अभ्यास करना चाहिये तब तक, जब तक कि मन की प्रवृत्ति ध्यान में एकलोवता को न प्राप्त कर लेबे । अर्थात् जब तक ध्यान की सिद्धि न हो जाये तब तक इस गाथा को अपने हृदय में स्थापित कर बार बार इसीका चितवन करते रहना चाहिये ।।१०२॥ इसी भावना को दृढ़ करने के लिये पुनः आचार्यदेव कहते हैं-- अन्वयार्थ----(जं किंचि मे दुचरितं सव्वं तिविहेण वास्सरे) जो कुछ भी मेरा दुष्कृत है उन सबको मैं मन-वचन-काय से छोड़ता हूँ। (तिविहं तु सामाइयं सव्वं णिरायार करेमि) और त्रिविध सामायिक को भी सर्व निर्विकल्प करता हूँ । ____टीका--मैंने अज्ञान से अथवा प्रमाद से ज्ञात अथवा अज्ञात रूप जो कुछ दुष्कृत मन-वचन-काय से किया हो, कराया हो या करते हुए को अनुमोदना दी हो, उस सभी को मैं मन-वचन-काय से छोड़ता हूँ। तीनों प्रकार की मन-वचन-काय कृत, और कृतकारित अनुमोदनारूप सामायिक को मैं सर्व निर्विकल्प अथवा निर १. मूलाचार में भी माह माथा है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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