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________________ २९४ नियमसार-प्राभृतम् वा करोमि । विशुद्धज्ञानदर्शन रूप परमानंदक लक्षण निजपरमात्मतत्त्व सम्यक्श्रद्धानम्, तस्यैव परिज्ञानम्, तत्रैव चैकाग्रयपरिणतिरूपं चारित्रम् अस्मिन् निश्चय रत्नत्रये स्थित्वा परमसमरसीभावपीयूषं पातुमिच्छामि । इयं दुष्कृतत्यागप्रवृत्तिभावना ज्ञाताज्ञातातीचारानाचारविवक्षयाऽस्ति । सा तथा निराकारसामायिकभावनापि षष्ठगुणस्थानपर्यंताऽग्रे ऽप्रमत्ताविगुणस्थाने सामाfai वीतरागनिर्विकल्पध्यानरूपेणास्ति । अत्र परमसाम्यभावना प्रधानेति ज्ञात्वा तस्था एवाभ्यासोऽन्वहं विधेयः ॥ १०३ ॥ पुनरपि साम्यभावनां द्रढीकर्तुं प्रेरयन्स्माचार्याः सम्मं मे सव्वभूदेसु वैरं मझंण केण वि । आसाए वोसरिता गं, समाहि पडिवज्जए ॥ १०४ ॥ तिचार करता हूँ । विशुद्ध ज्ञान दर्शन रूप परमानंद एकलक्षण निज परमात्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में एकाग्र परिणति रूप चारित्र, इस निश्चयरत्नत्रय में स्थित होकर में परमसमरसीभावरूप अमृत को पीना चाहता हूँ । यह दुष्कृत के त्याग करने की प्रवृत्तिरूप भावना ज्ञात अथवा अज्ञात अतीचार अनाचार की विवक्षा से है । वह उस प्रकार की निराकार भावना भी छठे गुणस्थान पर्यंत ही है, आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में वह सामायिक वीतराग निर्विकल्प ध्यानरूप से है । यहाँ पर परमसाम्य भावनाप्रधान है, ऐसा जानकर उसी का अभ्यास प्रतिदिन करते रहना चाहिये ॥ १०३॥ पुनः साम्यभावना को दृढ़ करने के लिये आचार्यदेव प्रेरित करते हैं— अन्वयार्थ - - ( मे सव्वभूदेसु सम्मं ) मेरा सर्व प्राणियों में समभाव है (मज्झं वेरं ण केण वि ) मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है, (आसाए वोसरित्ताणं) में आशाओं का त्याग करता हूँ और ( समाहि पडिवज्जए) समाधि को स्वीकार करता हूँ । १. यह गाथा मुलाचार में है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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