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________________ नियमसार-प्राभृतम् स्याद्वादचन्द्रिका सव्वभूदेसू मे सम्म-एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यंतो यावान जीवसमहस्तेष सर्वेषु मम समताभावोऽस्ति । मज्झं केण वि वैरं ण-केनचित् साध मम वैरभावो नास्ति, अस्मिन्ननाविसंसारे मन कोऽपि शत्रुनास्ति निजाजिताशुभकर्मान्तरेणातो मम सत्त्वेषु मैत्री एग imतं च भीमसमानामिना.-- पापमरातिधर्मो बंधु/वस्थ चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति॥ ततः कारणात् आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडित्रज्जए-ख्यातिलाभपूजाविजीवितेंद्रियबलस्वास्थ्याविभावनारूपां सर्वामपि आशामुत्सृत्य नून निश्चयेन विचैतन्यस्वरूपपरमाहादैकलक्षणपरमसमाधिर्मया प्रतिपद्यते । किंच अहमिक्को खलु सुझो वेसणणाणमहओ सदारूबी। णवि अत्यि मम किंचियि अण्णं परमाणुमित्तं पि। इति हेतोः स्वार्थसिद्धेः एवाशामादाय परमवैराग्यभावपरिणतोऽहं परवस्तुभ्य आशां त्यजामि। टीका--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत जितने भी जीव हैं, उन सबमें मेरा समताभाव है किसी के साथ भी मेरा वैरभाव नहीं है । अपने द्वारा अर्जित पाप कर्म के सिवाय इस अनादि संसार में मेरा कोई भी शत्रु नहीं है, इसलिये मेरी सभी जीवों में मैत्री ही है। श्रीसमंतभद्रस्वामी ने कहा भी है "जीव का पाप शत्र है और धर्म मित्र है, ऐसा निश्चय करते हुए यदि आगम को जानते हैं, तो वे निश्चित ही मोक्षमार्ग के ज्ञाता होते हैं।" इसलिये ख्याति, लाभ, पूजादि और जीवन, इन्द्रिय, बल, स्वास्थ्य आदि भावनारूप सभी आशाओं को छोड़कर मैं निश्चित ही चिच्चैतन्यस्वरूप परमाह्लाद एक लक्षण परमसमाधि को प्राप्त करता हूँ । दूसरी बात यह है कि "मैं एकाकी हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ, मेरा अन्य किंचित् परमाणुमात्र भी नहीं है ।" इस हेतु से मैं अपने प्रयोजन की सिसि की ही १, रत्नकरण्डश्रावकाचार। २. समयसार,गाया।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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