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________________ ३३६ नियमसार-प्राभृतम् धुधसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तक्यरणं । पाऊण घुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि॥ किंव-प्रारम्भावस्थायां ज्ञानं परीषहोपसर्गसंजनने विनश्यति । उक्तं तत्रैव सुहेण भाविव जाणं दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा बुक्खेहि भावए । तात्पर्यमेतत्-बाह्यतपोभिः साध्यमाभ्यंतरं तपः कुर्वता स्वात्मशुद्धिः कर्तव्या सर्वप्रयत्नेन ॥११७॥ तपश्चरणेनान्यः को लाभ इति प्रश्ने उत्तरयन्त्याचार्यदेवाः गिताणताण, मारजिअ-पुहशमुहकम्मसंदोहो। " तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ।।११८॥ "तीर्थंकर की ध्रुवसिद्धि है, अर्थात निश्चित ही मोक्ष जायेंगे, फिर भी चारज्ञानधारी होकर भी तपश्चरण करते हैं, ऐसा जानकर निश्चित ही जान से युक्त होकर भी तुम्हें तपश्चरण करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि प्रारंभ अवस्था में ज्ञान-तत्त्वज्ञान परीषह और उपसर्ग के आने पर नष्ट हो जाता है। यही बात कही है-- "सुखपूर्वक भावित किया गया ज्ञान दु:ख के आ जाने पर नष्ट हो जाता है । इसलिये योगी अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा आत्मा की भावना करता रहे ।' ___ अर्थात् मुनिराज कायक्लेश आदि तप को कर करके आत्मतत्त्व को भावना करते रहें, तभो वह तत्त्वज्ञान परोषह, उपसर्ग आदि के समय टिक सकता है । तात्पर्य यह हुआ कि बाह्य तपश्चरण के द्वारा साध्य जो अभ्यंतर तपश्चरण है, उसे करते हुए सर्व प्रयत्न से अपने आत्मा को शुद्धि करते रहना चाहिये ।।११७॥ ___ तपश्चरण से अन्य और क्या लाभ है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं-- अन्वयार्थ—(णताणतभवेण) अनंत अनंत भवों में (समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो) उपजित किया गया जो शुभ-अशुभ कर्मों का समूह है, (तवचरणेण विण१. मोक्षप्राभूत । २. मोक्षप्रामृत ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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