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नियमसार-प्राभृतम्
३३७ णताणंतभवेण समज्जिअसुहअसुहकम्मसंदोहो-अनादिकालाद् अद्यावधि यावत् सर्वेषां जीवानां नरकतिर्य मनुष्यदेवपर्यायः अनन्तानन्तभवाः संजाताः । तेनानन्तानन्तभवेन समजितः शुभाशुभकर्मणां सदोहः । तबचरणेण विणस्सदि-तत्सर्वमपि तपश्चरणेन विनश्यति । तम्हा तवं पायच्छित्तं-तस्मात् कारणात् तप एव प्रायश्चित्तम् ।
तद्यथा-प्रथा तपनस्य चंडकिरणः सरोनीरं शुष्यति, तथैव तपाचरणेन भाषकर्मसलिलं द्रव्यकर्मपंच काष्यति । एष द्वादशतिशतपस्सु धर्तमानकाले स्वाध्याय एव परमं तपो गीयते । उक्तं च मूलाचारै--
बारसविधम्हि वि तवे, सम्भंतरबाहिरे कुसल विठे। णवि अस्थि णवि य होही, समायसमो तवोकम्मे ।। सजायं कुर्वतो, पर्चेवियसंवुडो तिगुप्तो य। हवेदि य एअग्गमणो, विणएण समाहिओ भिक्खू ।।
स्सदि) वह सब तपश्चरण से नष्ट हो जाता है । (तम्हा तवं पायच्छित्तं) इसलिये तप ही प्रायश्चित्त है।
टीका-अनादिकाल से लेकर आज तक सभी जीवों के नरक तिर्यंच मनुष्य और देव पर्यायों से अनंतानंत भव हो चुके हैं। उन अनंतानंत भवों में उपार्जित किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का जो समूह है वह भी तपश्चरण से नष्ट हो जाता है, इसलिये तप ही प्रायश्चित है।
उसी को कहते हैं-- जैसे सूर्य की किरणों से सरोवर का जल सूख जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण से भात्रकर्मरूपी जल और द्रव्यकर्मरूपी कीचड़ सूख जाता है । इन बारह प्रकार के तपों में वर्तमान काल में स्वाध्याय हो परम तप कहा गया है।
मूलाचार में कहा है
१. मूलाचार, अधिकार ५१