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________________ नियमसार- प्राभूतस् fre, तपश्चरणप्रभावेन नानाविधा ऋद्धय उत्पद्यन्ते । यथा- - रसत्यागप्रभावेन क्षीरत्र विसपित्रादिमधुरस्राव्यमुतनाविरसर्द्धयो जायन्ते । ३३८ तात्पर्यमेतत् बाह्यतपोऽनुष्ठातुभिस्तपस्विभिः स्वाध्यायतपोमाहात्म्यमवबुद्ध स्वस्मिन् केवलज्ञानज्योति प्रकटीकरणार्थं ततः प्राग् भावश्रुतज्ञानसिद्धयर्थं सततं द्रव्यश्रुतस्याभ्यासो विधातव्यः ।। ११८ || एवं 'उक्किट्ठो जो बोधो' इत्यादिना ज्ञानमेव प्रायश्चित्तमिति कथनमुख्यस्वेन एकं सूत्रं गतम्, तदनु 'किं बहुना' इत्यादिना तपश्चरणमेव प्रायश्चित्तमिति सूचनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते । एभिस्त्रिभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । स्वात्मध्यानम क्रेन सर्वदोषनिराकरणं भवेदिति निरूपयन्त्याचार्यं देवा: ----- "बारह प्रकार के तपों में छह अभ्यंतर तप हैं और छह बाह्य तप हैं । इन पुष्यरूप तपों में स्वाध्याय के समान तप न हुआ है और न होगा ही । स्वाध्याय को करते हुये पाँचों इन्द्रियों का विषय रुक जाता है, तीनों गुप्तियाँ हो जाती हैं और मन एकाग्र हो जाता है । जो मुनि उपयोग लगाकर विनय से स्वाध्याय करते हैं, उन्हें ये लाभ होते हैं । " दूसरी बात यह है कि तपश्चरण से अनेक प्रकार को ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे रसत्याग के प्रभाव से मुनि के क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधुरस्रावी और अमृतस्रावी नाम की रस ऋद्धियाँ हो जाती हैं । तात्पर्य यह है कि बाह्य तप के अनुष्ठान करने वाले तपस्वियों को स्वाध्याय का माहात्म्य जानकर अपने में केवलज्ञानज्योति को प्रगट करने के लिये और उसके पूर्व भावश्रुत की सिद्धि के लिये सतत हा द्रव्यभूत का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ ११८ ॥ इस प्रकार "उक्किट्ठो जो बोहो" इत्यादि रूप से ज्ञान ही प्रायश्चित्त है ऐसे कथन को मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इसके बाद "कि बहुणा" इत्यादिरूप से तपश्चरण ही प्रायश्चित्त है, ऐसी सूचना में तत्पर दो सूत्र हुये । इन तीन सूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ । अब आचार्यदेव अपने आत्मा के ध्यान से सर्व दोषों का निराकरण होता है, ऐसा निरूपण करते हैं
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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