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________________ नियमसार-प्राभृतम् ४२५ हे चेतः ! किमु जीव ! तिष्ठसि कथं ? चितास्थितं, सा कुतो ? रागद्वेषवशात, तयोः परिचयः कस्माच्च जातस्तव । इप्टानिष्टसमागमादिति यदि श्वन तदाबां गतो, नो चेन्मंच समस्तमेतदधिराविष्टाविसंकल्पनम् ॥१४५॥ प्रारम्भावस्थायामीदगुपायेन मनः संबोध्य शिष्यपुस्तमवसतिकादिभ्योऽपि ममत्वमपहाय निश्चयधर्म्यध्यानसिद्धयर्थ व्यवहारचर्चध्यान सततमाश्रयणीयम् । प्रथमगुणस्थाने जोधा मिथ्यात्वासंयमविषयकषाययुयंसनेषु प्रवर्तमाना बहिरात्मानः सर्वथान्यवशा एव । चतुर्थगुणस्थाने स्थिताः सरागसम्यग्दृष्टयश्चारित्रमोहोदयेनासंयमादिषु वर्तन्ते, तथापि स्वास्मतत्त्वश्रद्धानेन अघन्यान्तरात्मानः कथंचित् यहाँ जीव अपने चित्त से कुछ प्रश्न करता है और तदनुसार चित्त उनका उत्तर देता है जीव--हे चित्त ! चित्त--हे जीव । क्या है ? जीव---तुम कैसे स्थित हो ? चित्त--मैं चिता में स्थित रहता है। जीव--वह चिंता किससे उत्पन्न हुई ? चित्त-वह राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न हुई है। जीव---इन राग-द्वेष का परिचय तुम्हें किस कारण से हुआ ? । चित्त- इनके साथ मेरा परिचय इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं के समागम से हुआ है। जीव-हे चित्त ! यदि ऐसा है तो हम दोनों को नरक में जाना पड़ेगा। वह यदि तुम्हें इष्ट नहीं है, तो इस समस्त इष्ट-अनिष्ट कल्पना को शीघ्र ही छोड़ दो । प्रारम्भ अवस्था में ऐसे उपायों से मन को संबोधित करके शिष्य, पुस्तक, वसतिका आदि से भी ममत्व छोड़कर निश्चय धर्म्य ध्यान की सिद्धि के लिए सतत ही व्यवहार धर्मध्यान का आश्रय लेना चाहिये ।। प्रथम गुणस्थान में जीव मिथ्यात्व, असंयम, विषय, कषाय और दुर्व्यसनों में प्रवृत्ति करते हुये बहिरात्मा हैं, वे सर्वथा अन्यवश ही हैं। चौथे गुण स्थान में स्थित संरागसम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहोदय से असंयम आदि में वर्तन करते हैं, १. पद्मनंदिपंचविंशतिका, अ० १ । ५४
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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