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________________ २७० नियमसार-प्राभृतम् तस्य अंतर्बहिर्जल्पविनिर्मुक्ते निर्विकल्पसमाधौ स्थितस्य महर्षेः सर्वे दोषाः पलायते । तम्हा दु झाण मेव हि सबदिचारस्स पडिकमण-ततो हेतोस्तु ध्यानमेव खलु निश्चयेन सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणं भवति । सर्वातिचारस्य कि लक्षणम् ? 'सर्वातीचारा दीक्षाग्रहणात् प्रति सन्यासग्रहणकालं यावत् कृता दोषास्तेषां प्रतिक्रमणमुत्तमार्थकाले एवं भवति'। इतो विस्तरः-- __ आये जंबूद्वीपे भरतक्षेत्र आर्यखण्डेऽस्यामवसपिण्यामधुना दुष्षमकाले महतिमहावीरजिनशासनकाले यथासमयं प्रत्येकमपि प्रतिक्रमणक्रियां साधको दण्डकोच्चारणपूर्वकं कुर्वन्त्येव । प्रोक्तं मूलाचारे-- सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्सय जिणस्स। अवराहे पडिकमणं, मनिमयाणं जिणवराणं ॥ इरियागोयरसुमिणाविसञ्चमाचरटु मा व आचरतु । पुरिम चरिमाद् सव्वे, सब्वं णियमा पडिकमंदि। सर्व दोषों का परित्याग कर देते हैं, उन अंतर्जल्प-बहिर्जल्प से रहित, निर्विकल्प समाधि में स्थित महर्षियों के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसी हेतु से ध्यान ही निश्चय से सर्वातिचार का प्रतिक्रमण है। शंका-सर्वातिचार का क्या लक्षण है ? समाधान--दीक्षा ग्रहण काल से लेकर संन्यासग्रहण काल पर्यंत जो भी दोष लगते हैं, वे सब सर्वातिचार हैं, उनका प्रतिक्रमण उत्तमार्थ काल में ही होता है। उसी को कहते हैं--- इस प्रथम जंबू द्वीप में भरत क्षेत्र के अन्तर्गत आर्यखंड में इस अवसर्पिणी के दुष्षमकाल में महतिमहाबीर भगवान् के शासनकाल में यथासमय साधुगण, प्रत्येक भी प्रतिक्रमण क्रिया को दण्डकसूत्रों के उच्चारण पूर्वक करें ही करें। सो ही मूलाचार में कहा है-- प्रथम तीर्थकर और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म प्रतिक्रमण सहित है और द्वितीय अजितनाथ तीर्थंकर से लेकर तेईसवें भगवान पार्श्वनाथ तक तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुओं का अपराध होने पर हो प्रतिक्रमण करने का उपदेश है । ईर्यापथ, गोचार और स्वप्न (शयन) आदि सभी कार्य होवें या न होवें, किंतु प्रथम तीर्थकर १. अनगारधर्मामृत, अध्याय ८ श्लोक ५८ की टीका से ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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