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नियमसार-प्राभृतम्
२७१ ममिया दिढबुद्धी, पण अमोलहा ! तम्हा हु जमाचरति, तं गरहंता वि सुजाति ॥ पुरिम चरिमाबु जम्हा, चलचित्ता चेव मोहलक्खा थ।
तो सध्यपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिटुंता।' अस्याः प्रतिक्रमणक्रियायाः प्रमत्तसंयतमुनेरधस्तनभूमिकायामनुष्ठाने उपकारः स्यादननुष्ठाने चापकारो भवेत् । उपरितनभूमिकायां तु शुद्धोपयोगपरिणतो तवनुष्ठास्यावसर एव न लभ्यते । अत एघ समयसारे इमा विषकुम्भवत् कथिताः संति, तथापि श्रीअमृतचन्द्रसूरिणा कथितम्--
और अन्तिम तीर्थकर के तीर्थ में रहने वाले माधु नियम से सभी का प्रतिक्रमण करते हैं। इसका कारण यह है कि मध्यम तीर्थंकर के समय के साधु दृढ़ बुद्धिवाले, एकाग्रमना और मोहरहित हुए हैं। इसीलिए उनसे जब कभी जो कोई दोष हो जाता था, तभी वे उस दोष की गहा-अतिक्रमण करके शुद्ध हो जाते थे । किंतु ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासनकाल के शिष्य चलचित्त और मोहप्रकृति के हैं, इसलिए इन्हें अंधघोटकन्याय के अनुसार सभी प्रतिक्रमण करने का उपदेश है।
विशेषार्थ-एक राजा का घोड़ा अंधा हो गया । राजवैद्य कहीं बाहर गया था । तब उसके पुत्र ने चिकित्सा करनी शुरू की। उसने सभी औषधियां उस धोड़े की आँखों में क्रम-क्रम से लगानी शुरू कर दी। जब वह आँख खुलने की दवा लग गई तुरंत ही आँख खुल गई । उसी प्रकार से प्रथम तीर्थंकर के समय के साधुओं ने सभी प्रतिक्रमण किये हैं । तथा भगवान् महावीर के शासन के सभी साधु चलचित्त होते हैं । इसीलिये उन्हें कोई दोष लगे या न लगे, सभी प्रतिक्रमण करने ही होते हैं, जिसके लिये 'अंधघोटक' का दृष्टांत है ।
प्रमत्तसंयत मुनि के लिये नीचे की भूमिका में इस प्रतिक्रमण किया के अनुष्ठान करने से उपकार होता है और इस क्रिया को छोड़ देने में अपकार होता है। किंतु ऊपर की भूमिका में शुद्धोपयोग में परिणत होने पर इस प्रतिक्रमण के अनुष्ठान का अबसर नहीं रहता है । यही कारण है कि इन्हें समयसार में विषकुंभ के समान कह दिया है । फिर भी श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा है
१. मूलाचार, अधिकार ७॥