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________________ अथ निश्चयपरमावश्यकाधिकारः सांप्रतमस्य जंबूद्वीपस्य चतुस्त्रिशत्कर्मभूमिषु यावन्तोऽपि तीर्थकरपरमदेवकेवलिश्रुतकेलिनो निम्रन्थविगम्बरमुनयश्च विद्यन्ते तेभ्यो मे नमोऽस्तु नित्यम् । ___ अथ प्रवृत्तिरूपषडावश्यकक्रियासाध्यनिश्चयपरमावश्यकनामधेयोऽयमेकादशमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टावशगाथासूत्रेषु तावत् "जो ग हदि अण्णवसो' इत्यादिगाथासूत्रमादौ कृत्वा सूत्रद्वयेनावश्यकशब्दस्य व्युत्पत्त्ययं कृत्वा "चट्टवि जो सो समणो" इत्यादिना सूत्रत्रयेणान्यवशाः के के भवन्तोति कथ्यते । तदनु “परिचत्ता परभावं” इत्यादिना गाथाद्वयेनात्मवशसाधोर्लक्षणं कृत्वा "आवासएण होणो" इत्यादिसूत्रद्वयेनावश्यकेन को लाभस्तदन्तरेण च का हानिरिति प्रतिपाद्यते । तत्पश्चात् "अन्तरबाहिरजप्पे" इत्यादिना गाथाचतुष्टयेन ध्यानमयीमावश्यकक्रियां प्रतिपाद्य "जदि सक्काद'' इत्यादिगाथाद्वयेन यदि ध्यानक्रिया न भवेत्तहि कि कर्तव्यमिति __वर्तमान में इस जम्बूद्वीप की चौंतीस कर्मभूमियों में जितने भी तीर्थकर परमदेव, केवली, श्रुतकेवली और निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हैं, उन सबको नित्य ही मेरा नमोऽस्तु होवें। प्रवृत्तिरूप षट् आवश्यक क्रियाओं से साध्य निश्चय परमावश्यक नाम का एकादश अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उनमें से अठारह गाथासूत्रों में सर्वप्रथम "जो ण हवदि अण्णवसो' इत्यादि गाथासूत्र को आदि में करके दो सूत्रों द्वारा आवश्यक शब्द का व्युत्पत्ति-अर्थ करके "वट्टदि जो सो समणो" इत्यादि तीन सूत्रों द्वारा कौन कौन अन्यवश होते हैं ? ऐसा कहते हैं। इसके बाद "परिचत्ता परभाव' इत्यादि दो गाथासूत्रों द्वारा आत्मवश साधु का लक्षण करके "आषासएण हीणो” इत्यादि रूप दो सूत्रों द्वारा आवश्यक क्रिया से क्या लाभ है ? और उसके बिना क्या हानि है ? ऐसा प्रतिपादन करते हैं। इसके बाद "अन्तरबाहिरजापे" इत्यादिरूप चार गाथाओं द्वारा ध्यानमयी आवश्यक क्रिया का प्रतिपादन करके "जदि सक्कदि" इत्यादि रूप दो गाथाओं द्वारा यदि ध्यानक्रिया न होवे तो क्या करना चाहिये ? यह बताते हैं । इसके बाद "णामा जीवा" इत्यादि
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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