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________________ नियमसार-प्राभृतम् २५५ गतानि करोतीति शल्यमित्युच्यते । सह तेन वर्तत इति सशल्यं स्वरूपं परिवर्जयामि।' णिस्सल्लं उवासंपज्जामि-ततो निष्क्रान्तं पुननिःशल्यं स्वरूपमपसंपर्थे।" अथवा देवसिकप्रतिक्रमणसूत्रे अष्टविधशल्यानि कथितानि । तथाहि-"कोहसल्लाए, माणसल्लाए, मायासल्लाए, लोहासल्लाए, पेम्मसल्लाए-स्नेहशल्ये, पिवाससल्लाएइहलोकविषयाकांक्षणं पिपासाशल्यं तस्मिन्, णियाणसल्लाए-परलोके भोगाकांक्षणं निदानं, नियतं दीयते चित्तमस्मिन्निति निदानमिति व्युत्पत्तेः, मिच्छादसणसल्लाए। एतानि अष्टौ शल्यानीव शल्यानि । करायाणा क्रोधादिशल्यानां च को विशेष इति चेत्, उज्यते-बंधं प्रत्यतेषामस्ति विशेषः। तथाहि-क्रोधकषायजनितो मंदोऽल्पस्थितिको बंधः, क्रोधादिशल्यजनितस्तु तोबो बहुस्थितिको बंधः । दुःसह दुःखों को प्राप्त कराते हैं । इसीलिये ये शल्य कहलाते हैं। इन शल्यसहित स्वरूपोंको मैं छोड़ता हूँ और निःशल्य स्वरूप को मैं प्राप्त करता हूँ।" अथवा देवसिक प्रतिक्रमणसूत्र में आठ प्रकार की शल्य मानी गई हैं। उन्हीं को कहते हैं--- क्रोध शल्य के करने में, मान शल्य करने में, माया शल्य करने में, लोभ शल्य करने में, प्रेम शल्य करने में, पिपासा-इस लोक के विषयों की आकांक्षारूप पिपासा शल्य के करने में, परलोक में विषयों की आकांक्षारूप निदान शल्य करने में और मिथ्यादर्शन शल्य करने में जो दोष हुआ है, वह मिथ्या होवे । यहाँ पर निदान का लक्षण यह है कि नियत अर्थात् निश्चितरूप से जिसमें चित्त लगाया जाय वह निदान है । इस तरह ये आठ शल्य हैं। प्रश्न-कषायों और क्रोधादि शल्यों में क्या अन्तर है ? उत्तर-बंध के प्रति इनमें अन्तर है। क्रोध-कषाय के निमित्त से मन्द और अल्पस्थिति वाला बंध होता है, किन्तु क्रोधादि शल्य के निमित्त से तीन और बहुत स्थितिवाला बंध होता है । १, प्रतिक्रमण अन्यत्रयो
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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