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________________ २५६ नियमसार-प्रामृतम् ____ मिथ्याशल्यं प्रथमगुणस्थान एव, मायाशल्यं तत्रैव, निदानशल्यं तु तत्रैव गुणस्थाने, किंतु निवाननाम्ना यदातध्यानं तत्पंचमगुणस्थानपर्यन्तमपि संभवति । यद्यपि "निघाल्यो वती'' इति सूत्रात् अणुव्रतिनोऽपि निःशल्या भवितुमर्हन्ति, तथापि प्रतिक्रमणाधिकारात् अत्र तेषां नाधिकारोऽस्ति । इति मत्वा सर्वसंकल्पविकल्पशून्ये परमनिःशल्यस्वरूपे स्वशुद्धात्मनि एब रुचिविधेया ॥८॥ यदि शल्यादिविजितः साधुः प्रतिक्रमणस्वरूपो भवेत्तहि त्रिगुम्तिवैमर्थ्यमव ? इत्माशंकामामाघार्याः समादधते --- यता यतिमात्र, लिगुशिगुस्सो हवे जो साहू । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८॥ स्थाद्वावन्द्रिका अगुत्तिभावं हि चत्ता-अगुप्तिभावं खलु त्यक्त्वा, जो साहू तिगुत्तिगुत्तो वेइ-यः साधुः त्रिगुप्तिभिर्गुप्तो रक्षितो भवेत् । सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पङि इन शल्यों को गुणस्थानों में दिखाते हैं मिथ्यात्व शल्य प्रथम गुणस्थान में हो है, माया शल्य भी वहीं है और निदान शल्य भी उसी प्रथम गुणस्थान में ही है । किन्तु निदान नाम से जो आतंध्यान है, वह पाँचवें गुणस्थान तक भी संभव है। "यद्यपि ब्रती निःशल्य होता है" इस सूत्र के अनुसार अणुव्रती श्रावक भी निःशल्य होते हैं, फिर भी इस प्रतिक्रमण अधिकार में उनका कथन नहीं है । ऐसा जानकर सर्वसंकल्प विकल्प से शून्य, परनिःशल्य स्वरूप ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा में ही रुचि रखनी चाहिए ।।८७॥ यदि शल्यादि विजित साधु प्रतिक्रमण स्वरूप हैं, तो तोनों गुप्ति व्यर्थ ही है ? ऐसी शंका होने पर आचार्य समाधान करते हैं अन्वयार्थ—(जो साहू हि अगुत्तिभावं चत्ता) जो साधु निश्चित रूप से अगुप्तिभाव को छोड़कर, (तिगुत्तिगुत्तो हवेइ) तीन गुप्ति से सहित होता है, (सो पडिकमणं उच्चह) वह प्रतिक्रमण कहलाता है, (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है। टीका-जो साधु निश्चित ही अगुप्तिभाव को छोड़कर तीन गुप्तियों से रक्षित रहते हैं, वे ही निग्रंथ तपावन 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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