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________________ नियमसार-प्राभूतस् तथैव प्रोक्तं च प्रवचनसारग्रन्थे-- _ "परिणमदि जेण दट्वं तत्कालं तन्मय ति पणतं'।' एतदुक्तं भवति-शुद्धाशुद्धनयवयविभागेन स्वात्मतत्त्वं विज्ञायाशुद्धस्वभावपरिहारार्थ शद्धात्मस्वभावमेव भावयितव्यं, तस्योपलब्धिश्च यथा स्यात् तथैव यतितव्यमाचरितव्यमपि। अथ स्वभावज्ञानस्य स्वरूपं, म भेद विभालज्ञानं च प्ररूपयन्तः पूर्व निगदन्ति आचार्या: केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ तं महावणाणं ति-तत स्वभावज्ञानम् इति विजानीहि । तत् किं ? केवलं-केवलम् । पुनः कथम्भूतम् ? इंदियहिय-इन्द्रियरहितम् अतीन्द्रियम् । पुनः किविशिष्टम् ? असहायं-असहायं परसहकारानपेक्षमिति । यही बात प्रवचनसार ग्रन्थ में कही भी है.-.-- "जिस रूप से द्रव्य परिण मन करता है उस काल में वह तन्मय-उसो रूप का हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।'' तात्पर्य यह हुआ कि---शुद्ध और अशुद्ध इन दोनों नय विभाग से अपने आत्मतत्त्व को जानकर अशुद्ध स्वभान को छोड़ने के लिये शुद्ध आत्मस्वभाव की ही भावना करनी चाहिये और जिस तरह भी उसकी प्राप्ति हो सके वैसा ही प्रयत्न और वैसा ही आचरण करना चाहिये । __ अब आचार्यदेव स्वभावज्ञान का स्वरूप और विभावज्ञान के भेदों को बतलाते हुए गाथासूत्र कहते हैं अन्वयार्थ-केवलं इंदियरहियं असहायं) जो केवल, इंद्रियरहित और असहाय है (तं सहावणाणं त्ति) वह स्वभावज्ञान है । (सण्णाणिदरवि याप्पे दुविहं विहावणाणं हवे) संज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का विभावज्ञान होता है ।।११।। टोका-जो केवल-एक, अतीन्द्रिय और पर सहाय की अपेक्षा से रहित है वह केवलज्ञान स्वभावज्ञान है। १. प्रवचनसारगाथा ८।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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