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________________ ४०६ नियमसार-प्राभृतम् लेभिरे । तम्हा जोगवरभत्ति बरु तस्मात्वमपि योगवरभक्ति धारय । अनया भक्त्यां स्वयाऽपि मोक्षसुखं प्राप्स्यते, नात्र संदेहः । इतो विस्तरः सर्वेऽपि वृषभादितीर्थंकरा प्रव्रज्याग्रहणकाले मोक्षंगतपुरुषाणां सिद्धानां भक्तिरूपा निर्वाणभक्ति "नमः सिद्धम् इतिमंत्रपदोच्चारणेन कृत्वा शिरः केशानु स्पाय योगवरभक्ति कृत्वा योगे तस्थुः । इमे तीर्थंकरा योगभक्तिमेव कुर्वन्ति न च योगभक्तिम्, किंच, तीर्थंकरप्रकृतिसस्वनिमित्तेन इन्द्रादिभिः गर्भजन्मकल्याणक पूजाप्राप्तानामेषामस्मिन्भवे कश्चिदपि गुरुर्भवितुं नार्हति । एतज्ज्ञात्वा यदि कश्चित् स्वैरमुनिः जल्पेत् यवहमपि तीर्थंकरप्रतिमायाः सन्निधां दीक्षां गृह्णामि सांप्रतं न मे कश्चित् गुरुर्भवितुमर्हः । परं नैतच्छु यः, तीर्थंकरावतिरिक्तो न कश्चित् स्वयं दीक्षां गृहीतुं शक्नोति । तुम भी योगवर भक्ति को धारण करो। इस भक्ति से तुम्हें भी मोक्षसुख प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं । इसी का विस्तार करते हैं -- वृषभदेव आदि चौबीसों तीर्थकर दीक्षा ग्रहण के समय मोक्ष को प्राप्त करने वाले सिद्धों की भक्तिरूप निर्वाणभक्ति को "नमः सिद्धं " इस मंत्र के उच्चारण द्वारा करके शिर के केशों को उखाड़ करके सर्वोत्तम योग भक्ति को करके योग-ध्यान में स्थित हो गये थे । ये तीर्थंकर योगभक्ति ही करते हैं, योगियों की भक्ति नहीं। क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व के निमित्त से इन्द्रादि द्वारा की गई गर्भ जन्म कल्याणक की पूजा को प्राप्त करने वाले इनके इस भव में कोई भी गुरु नहीं हो सकता है। ऐसा समझकर यदि कोई स्वैराचारी मुनि ऐसा कहे कि मैंने भी तीर्थंकर प्रतिमा के सांनिध्य में दीक्षा ली है । वर्तमान में मेरा कोई गुरु होने योग्य नहीं है ।' किंतु यह कहना ठीक नहीं है | तीर्थंकर भगवान् से अतिरिक्त कोई भी स्वयं दीक्षा नहीं ले सकते हैं । -· १. आदिपुराण t
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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