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नियमसार-प्राभृतम्
४०७ किंच, तीर्थंकरदेवा अपि पूर्वभवे गुरूणां चरणसान्निध्य एव दीक्षित्या तीर्थंकरप्रकृतिबंधं चापि केवलिश्रुतकेबलिपादमूले एव विधाय पंचकल्याणकस्वामिनो बभूवः । तेषां पूर्वभवनामानि तेषां गुरूणां च नामानि शास्त्रे श्रूयन्ते । तथाहि-- "वज्रनाभविमलवियुलवाहनमहाबलातिबलापराजिसनंदिषेणपद्ममहापद्मपद्मगुल्मनलिनगुल्म • पद्मोत्तरपद्मासनपद्मदशरथमेघरसिंहरथधनपतिवैश्रवणश्रीधर्मसिद्धार्थसुप्रतिष्ठानन्द नंदननामानो बभूवुः। एतेषां गुरवश्च वज्रसेनारिन्दमस्वयंप्रभविमलवाहनसीमंधरपिहितास्रथारिन्दमयुगंधरसर्वजनानन्दोभयानंदवनक्त्तवज्रनाभिसर्वगुप्तत्रिगुप्तचित्तर - क्षविमलवाहनधनरथसंवरधर्मसुनंदनंदव्यतीतशोकदामरप्रोष्ठिलनामधेया आसन् । एषु भगवान् वृषभदेवो पूर्वभवे चक्रवर्ती भूत्वा श्रमणावस्थायां चतुर्दशपूर्वधारकः, शेषाश्च तीर्थकराः पूर्वभवे महामण्डलेश्वरा भूत्वा एकादशांगवेत्तारश्च बभूवः ।
इयं योगभक्तिः क्व संभवति ?
दूसरी बात यह है कि तीर्थकर देव भी पूर्व भव में गुरुओं के चरण सांनिध्य में ही दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही करके पंचकल्याणक के स्वामी हुए हैं। उनके पूर्वभव के नाम और उनके गुरुओं के नाम शास्त्र में सुने जाते हैं।
उसे ही कहते हैं-वज्रनाभि, विमल, विपुलवाहन, महाबल, अतिबल, अपराजित, नंदिषगा, पद्म, महापद्म, पद्मगुल्म, नलिनगुल्म, पद्मोत्तर, पद्मासन, पद्म, दशरथ, मेघरथ, सिंहरथ, वनपति, वैश्रवण, श्रीधर्म, सिद्धार्थ, सुप्रतिष्ठ, आनंद
और नंदन ये नाम वृषभादि तीर्थंकरों के पूर्व भव के हैं। इनके गुरु वत्र सेन, अरिदम, स्वयंप्रभ, विमलवाहन, सीमंधर, पिहितात्र ब, अरिदम, युगंधर, सर्वजनानंद, उभयानंद, वज्रदत्त, वज्रनाभि, सर्वगुप्त, चित्तरक्ष, विमलवाहन, घनरथ, संवर, वरधर्म, सुनंद, नंद, व्यतीतशोक, दामर और प्रोष्ठिल इन नामवाले हुए हैं। इन तीर्थंकरों में भगवान् वृषभदेव पूर्वभव में चक्रवर्ती होकर मुनि अवस्था में चतुर्दश पूर्वो के धारी हुए थे और शेष तेईस तीर्थकर पूर्वभव में महामण्डलेश्वर राजा होकर मुनि अवस्था में ग्यारह अंग के ज्ञानी हुए हैं।
प्रश्न----यह योगभक्ति कहाँ संभव है ? १. हरिवंशपुराण, सर्ग ६० ।