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नियमसार-प्रामृतम् अस्मिन् जंबधीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे अस्या अवसपिण्याश्चतुर्थकाले वृषभाविचतुविशतितीर्थंकरदेवैः योगक्तिः कृता, अन्येऽपि भरतसगररामबलभद्रपांउवसुदर्शनादयो महापुरुषा योगकि कृत्वैव निर्माणासानुरुन् । एदनेशरावतक्षेत्रस्यार्यखंडे कच्छासुकच्छादिद्वात्रिंशविदेहक्षेत्रेषु चाप्यार्यखंडेषु सीमंधरप्रभृतितीर्थकरगणधरदेव. चक्रवतिबलदेवादयो पुण्यपुरुषाः योगक्ति निर्वाणभक्ति च कुर्वन्त्येव । तथैव घातकोखंडे पुष्कराधद्वीपे च पूर्वापरभागेषु यावन्त्योऽपि कर्मभूमयः सन्ति, सर्वत्र तीर्थकरादिमहापुरुषा एवंविधिना एव भक्ति कुर्वन्ति ? ..इमाः कर्मभूमयः क्व क्य कियन्त्यश्च ? .. सार्धद्वयद्वीपेष पंचभरसपंचैरावतेषु षष्ट्युत्तरशतविदेहेषु सर्वाः सप्तत्यधिकशतकमभूमयोऽस्मिन् मध्यलोके सन्ति । इतःपर्यन्तमेव मनुष्या उत्पद्यन्ते न चान्यत्रासंख्यद्वीपेषु । पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तृतमत्यलोकस्य सीम्नः परे तिर्यचो विग्रन्ते, न च मानवाः । तस्मात् निर्वाणपदं प्रापयितुं साक्षात् कारणभूता परमनिर्वाणभक्तिरपि अत्र मर्त्यलोक एवं सिद्धयति ।
उत्तर---इस जंबूद्वीप भरतक्षेत्र के आर्यस्खण्ड में इस अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में वृषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों ने योगभक्ति की है। अन्य भी भरत, सगर, राम, बलभद्र, पांडव, सुदर्शन सेठ आदि महापुरुषों ने योगभक्ति करके ही निर्वाणपद प्राप्त किया है। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में तथा कच्छा, सुकच्छा आदि बत्तीस विदेह क्षेत्रों में भी आर्यखंडों में सीमंधर आदि तीर्थंकर, गणधरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव आदि पुण्यपुरुष योगभक्ति और निर्वाण भक्ति करते ही हैं। उसी प्रकार बातकोखंड और पुष्करार्ध द्वीप के पूर्वपश्चिम भागों में जितनी भी कर्मभूमियाँ हैं, उन सब में तीर्थकर आदि महापुरुष इसी विधि से ही भक्ति करते हैं।
प्रश्न—ये कर्मभूमियाँ कहाँ कहाँ हैं ? और कितनी हैं ?
उत्तर-ढाई द्वीपों में पांच भरत, पांच ऐरावत और एक सौ साठ विदेहों में सभी एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ इस मध्य लोक में हैं। यहाँ तक ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र असंख्यात बोपों में नहीं होते । पैतालीस लाख योजन विस्तृत इस मर्त्यलोक की सीमा से परे आगे तिर्यंच हैं मनुष्य नहीं । इसलिये निर्वाणपद को प्राप्त कराने के लिये साक्षात् कारणभूत परमनिर्वाणभक्ति भी इस मनुष्य लोक में ही हो सकती है।