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नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत्---प्रमत्तगुणस्थानिनो मुनयों योगाभ्यास कुर्वन्ति, तत उपरि अप्रमत्तसाधवो निर्विकल्पध्यानरूपयोगे स्थित्वा स्वात्मोत्थसहजपरमानंदामृतमनुभवन्तीति ज्ञात्वा सांप्रतमपि भवद्भिः योगीश्वराणां भक्ति विदधानः स्वपदयोग्यो ध्यानाभ्यासः कर्तव्यः ।
वे के योगक्ति नः ? किं च फलं प्राप्तवन्तः ? इति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं ददानाः प्रकृतमुपसंहरन्ति श्रीकुदकुंद देवाः
उसहादिजिणवरिंदा, एवं काऊण जोगवरभत्ति । णिव्वुदिसुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ॥१४॥
एवं जोगवरभत्ति काऊण--पूर्वोक्तकथित्तप्रकारेण योगस्य वरा सर्वोत्तमा भक्तिस्ताम् अथवा सर्वोत्कृष्टयोगस्य भक्ति कृत्वा । के ते ? उसहादिजिणबरिंदा-वृषभादिवर्धमानपर्यंताश्चतुविंशतितीर्थकरदेवाः । तहि ते किं फलं प्राप्तवन्तः ? णिव्वु. दिसुहमावण्णा-निवृतिसुखं कृतकृत्यतामनितपरमालालस्वरूपपरममोक्षसुखमापन्नाः
तात्पर्य यह हुआ कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनि योग का अभ्यास करते हैं, इसके ऊपर अप्रमत्त गुणस्थानवी साधु निर्विकल्पध्यानरूप योग में स्थिर होकर अपनी आत्मा से उत्पन्न सहज परम आनंद रूप अमृत का अनुभव करते हैं ऐसा जानकर आजकल भी आप सभी को योगीश्वरों को भक्ति करते हुए अपने पद के योग्य ध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिये ।
किन किन ने योग भक्ति की है ? और उसका क्या फल प्राप्त किया है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव प्रत्युत्तर देते हुए प्रकृत का उपसंहार करते हैं।
अन्वयार्थ--(उसहादिजिणबरिंदा एवं जोगवरभत्ति काऊण) वृषभ देव से लेकर वोरपर्यंत सभी जिनेद्रदेव इसी प्रकार से योगवर भक्ति को करके (णिव्वुदिसुहमावण्णा) निवृत्तिसुख को प्राप्त हुए हैं । (तम्हा जोगवरभत्ति धरु) इसलिये तुम योगवर भक्ति को धारण करो ॥१४०॥
टोका--पूर्वोक्त कथित प्रकार से योग को बर-सर्वोत्तम भक्ति योगवर भक्ति है अथवा सर्वोत्कृष्ट योग की भक्ति योगवर भक्ति है । वृषभनाय से लेकर वर्द्धमान भगवान् पर्यंत चौबीस तीर्थंकर देवों ने ऐसी योगवर भक्ति करके कृतकृत्यता से उत्पन्न परमाह्लादस्वरूप परम-मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लिया है। इसलिये