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________________ ܐܕܐ नियमसार- प्राभृतम् सुखमारस्ययोगस्य बहिदुःखमयात्मनि । बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मनः ॥ ततः परमानन्दस्वरूपे निजात्मतस्ये निजात्मानं संस्थाप्य बाह्य न्द्रियविषयेनो निवर्तनीयोऽर्था ज्ञानानन्दस्वरूपनिजात्मानुभूत्यां सत्यां सर्वेऽपि रागद्वेषमोहादयः स्वयमेवं पलायन्ते । उक्तं च पद्मनन्द्याचार्येण -- जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं, शीयन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं धायपि धारयत्य बिरला नन्दात्मशुद्धात्मनः, विकाशानपि पाण्छति समं दोषैर्मतः पंचताम् ॥ जिनने योग करना प्रारंभ किया है ऐसे योगी को बाहर सुख प्रतीत होता है और आत्मा में दुःख मालूम पड़ता है। इससे विपरीत जिन्होंने अच्छी तरह से आत्मा की भावना की हुई है ऐसे योगी को बाहर - ध्यान से अतिरिक्त काल में दुःख प्रतीत होता है और अध्यात्म - आत्मा के चितवन में स्थिर होने से सुख प्राप्त होता है । इसलिये परमानंद स्वरूप निजात्मतत्त्व में अपनी आत्मा को स्थापित करके बाह्य इन्द्रिय विषयों से मन को हटाना चाहिये । अथवा ज्ञानानंदस्वरूप निज आत्मा की अनुभूति के हो जाने पर सभी राग द्वेष मोह आदि स्वयमेव पलायमान हो जाते हैं । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है नित्य आनन्द स्वरूप शुद्ध आत्मा का चितवन करने पर रस नीरस हो जाते हैं, परस्पर वार्तालाप रूप कथा का कौतूहल नष्ट हो जाता है, विषय समाप्त हो जाते हैं, शरीर के विषय में भी प्रेम नहीं रहता है, वचन भी मौन धारण कर लेते हैं तथा मन भी दोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है । अर्थात् आत्मा के अनुभव आने पर ये सब विषय स्वयं समाप्त हो जाते हैं । १. समाधिशतक, श्लोक ५२ । २. पद्मनंदिपंचविशतिका अ० १, श्लोक १५४ ॥
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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