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________________ ५५२ नियमसार-प्राभृतम् मन्तराले सप्तवारानयं मार्गों व्युच्छिन्नः, किंतु वीरजिनशासने नास्ति व्युच्छेदः' । अत्र मुनिधर्मश्रावकधर्मरूपेण यो मार्गः स एव मोक्षमार्गः। कदाचित् कस्यचिद जनस्य कृतदोषेण नायं पवित्रमार्पो दुष्यति, प्रत्युत निर्दोषप्रवाहेण चलिष्यत्येव । अस्य ग्रन्थस्य नाम सर्वतः सर्वथान्वर्थकमेव, सर्वसारेषु सारभूतस्य सम्यग्रत्नत्रयस्थरू पसरागवीतरागनियमस्यैवात्र प्रतिपावनमस्ति । ग्रन्थकर्तृभिश्चारित्रप्राभूते मूलाचारे च सरागरलायं प्रधानत्वेन विवक्षितमत्र तु वीतरागरत्नत्रयं प्रधानत्वेन । __ यद्यपि तेषां श्रीकुन्दफन्वदेवानां सप्तमगुणस्थानयोग्योऽशात्मक एष बीतरागमोक्षमार्गः संप्राप्त आसीत्, यतस्तैरपि संघसंचालनधर्मप्रभावनाग्रन्थरचनादीनि बहूनि कार्याणि कृतानि, तथापि ध्यानरूपवीतरागनियम एव साक्षान्मोक्षकारणमयमेव निर्वाणफलं फलति न च कश्चिदन्यः एष, एवाशयः श्रीपूज्यदेवानामिति । में यह वीर भगवान् का शासन अविछिन्न ही रहेगा। बीच में सात तीर्थकरों के अंतराल में सात बार यह मार्ग व्युच्छिन्न हुआ है किंतु वीर भगवान् के शासन में में व्युच्छेद नहीं है । यहाँ जो मुनिधर्म और श्रावकधर्म रूप से मार्ग है वही मोक्षमार्ग है। कदाचित् किसो मनुष्य के दोष करने से यह पवित्र मार्ग दूषित नहीं होता है, बल्कि निर्दोष प्रवाहरूप से चलता ही रहेगा। इस ग्रन्थ का नाम सब तरह से सर्वथा अन्बर्थ ही है । सर्व सारों में सारभूत, सम्यगरत्नत्रयस्वरूप सरागनियम का और वोतराग नियम का ही इसमें कथन है । ग्रन्थकर्ता ने चारित्रप्राभृत और मूलाचार में सराग रत्नत्रय को प्रधानरूप से कहा है और यहाँ पर वीतराग रत्नत्रय को प्रधान रूप से कहा है। यद्यपि उन श्री कुदकुंद देव का सातवें गुणस्थान के योग्य अंशात्मक ही वीतराग मोक्ष प्राप्त हुआ था, क्योंकि उन्होंने भी संघसंचालन, धर्मप्रभावना, ग्रन्थ रचना आदि बहुत से कार्य किये हैं। फिर भी ध्यानरूप वीतराग नियम ही साक्षात् मोक्ष का कारण है । यही निर्वाण फल को फलता है अन्य कोइ नहीं। यहाँ श्री पूज्य कुन्दकुन्ददेव का यही अभिप्राय है । १. तिलोयपण्ण ति, अ० ४, पृ० ३४० ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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