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नियमसार-प्राभृतम् तिष्ठन्त्यनिष्ठन्ति निषादन्ति श्रीविहारं कुर्वन्ति । भगवतामेताः क्रियाः स्वभावतो जायन्ते । तत्र सौधर्मेन्द्रः किंकरो भूत्वा बद्धांजलि: अग्रेऽने गच्छन् सर्व व्यवस्थापति, न घ प्रेरयति । उक्तं च देवैरेव प्रवचनसारे
ठाणणिसेन्जाविहारा, धम्मुवोसो घणियवयो तेति ।
वरहंताणं काले, मायाचारोव्य इच्छीणं' ॥ ननु स्त्रीणां यवि मायाचारः स्वभावेन जायते, तर्हि कथं पूज्यास्ता आर्यिकापदच्याम् ? नेतद् वक्तव्यम्, अत्र बहुलापेक्षयैव कथनं न च सर्वथा सर्वस्त्रियोऽपेक्षया। अन्यच्च दृष्टान्तो न सर्वथा घटते, चंद्रमुखीकन्यावत् । तथैव सर्वाः स्त्रियो न सर्वथा
ने जिनेंद्र भगवान् इच्छा के बिना ही ठहरते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं और श्रीविहार करते हैं। भगवान की ये क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं। वहाँ पर सोधर्म इंद्र किंकर हुआ हाथ जोड़कर आगे-आगे चलता हुआ सर्व व्यवस्था करता है. किन्तु प्रेरणा नहीं करता है।
प्रवचनसार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही कहा है
स्थित होना, बैठना और विहार करना तथा धर्म का उपदेश देना, ये क्रियायें अरहंत भगवान् के अपने-अपने समय में स्वभाव से ही होती हैं, जैसे कि स्त्रियों में मायाचार स्वाभाविक रहता है ।
शंका~यदि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से होता है, तो पुनः वे आयिका की पदवी में पूज्य कैसे हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, यहाँ पर बहुलता की अपेक्षा से ही कथन है, न कि सर्वथा सर्व स्त्रियों की अपेक्षा से । दूसरी बात यह है कि दृष्टांत सर्वथा घटित नहीं होता है, जैसे कि चन्द्रमुखी कन्या कहने से कन्या का मुख सर्वथा चंद्रमा के समान नहीं हैं, मात्र सुन्दरता की अपेक्षा ही है। उसी प्रकार सभी स्त्रियाँ सर्वथा सर्वकाल में निन्दनीय नहीं हैं ।
किंतु ब्राह्मी, सुन्दरी, चंदना आदि आयिकायें और मरुदेवी आदि जिन
१. प्रवचनसार, गाथा ४४ ।