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नियमसार-प्राभूतस् दुक्खं णवि सुक्खं गवि पीडा गवि बाहा णेव विज्जदे-यत्र स्थाने दुःखं असाताप्रभृत्यशुभकर्मोदयसत्त्वाभावात् दुःखमपि न, साताप्रभूतिशुभकर्मोदयसत्त्वाभावात् इन्द्रियजन्यसांसारिकेष्टवनितापुत्रमित्रमिष्टाशनवसनादिसंबन्धि सुखमपि नास्ति, रोगादिकष्टाभावात् पीडापि व्यथापि नास्ति, परचक्रशत्रुविषाहिकृतबाधापि नैव विद्यते । पुनश्च मरणं णवि जणं णवि-पंचविधशरीराभावात मरणमपि नास्ति, ततश्च जननं जन्मग्रहणमपि नास्ति । तत्थेव य गिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति । इंदिय-उवसग्गा नवि-क्षयोपशमजन्यभावेन्द्रियाणि नामकर्मजनितव्येन्द्रियाणि च यत्र न सन्ति, देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृतचतुर्विधोपसर्गाश्च न सन्ति, मोहो णवि विम्हियो य णिहा ण-मोहनीयफर्माभावात् परबध्यात्मीयकरणभावो मोहोरिन्द, कुतूहल नाम नितारमा विगगनः, दर्शनावरणकर्मजनितसुषुप्तावस्था निद्रा च नास्ति । तिण्हा ण य छुहा णेव-तरुणा आशा पिपासा वा नास्ति, तथा च असातोदयवीरणया उत्पन्ना क्षुधा वेदनापि नैव । तत्थेव य णिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति । कम्म णोकम्म णवि-यत्र फर्म ज्ञानावरणाराष्ट्रविधं
टोका-जहां पर असाता आदि अशुभ कर्मों के उदय और सत्त्व का अभाव होने से दुःख नहीं है, साता आदि शुभ कर्मों के उदय और सत्त्व का अभाव होने से इन्द्रियजन्य सांसारिक, इष्ट स्त्री, पुत्र, मित्र, मिष्ट भोजन, वस्त्र आदि सम्बन्धी सुख भी नहीं है, रोगादि कष्टों का अभाव होने से पीड़ा भी नहीं है, परचक्र, शत्र, विष, सर्प आदि कृत बाधा भी नहीं है, पुनः पाँच प्रकार के शरीर का अभाव होने से मरण भी नहीं है और जन्म को ग्रहण करना भी नहीं है, वहीं पर निर्वाण होता है।
जहां पर क्षयोपशम से होने वाली भाव-इंद्रियां और नामकर्म के द्वारा बनी हुई द्रव्य-इन्द्रियाँ नहीं हैं, देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा किये गये चार प्रकार के उपसर्ग नहीं हैं, मोहनीय कर्म का अभाव होने से परद्रव्य को अपना मानने रूप मोह भी नहीं है, कुतूहल भाव से होने वाला आश्चर्य भाव नहीं है, दर्शनावरण कर्म से होने वाली सोने की अवस्था रूप निद्रा भी नहीं है, आशा अथवा प्यास नहीं है और असासावेदनीय के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होने बाली भूख को बाधा भी नहीं है, वहीं पर निर्वाण होता है।