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________________ नियमसार-प्राभृतम् ५१५ सततं शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जनपरमानन्दकेवलज्ञानज्योतिःस्वरूपं निजात्मानं श्रद्दधते भावयन्ति चिन्तयन्त्यनुभवन्ति च, त एव कस्मिंश्चिद् विवसे भय वा नियमेन एतादृा निर्माणसौष डरान्त माति रवानबर सुष्माभिरपि स्वात्मभावना भावयि तव्या ॥१७८॥ शाता मया सिद्धानां सोल्यादिगुणाः, पुनः तत्र किं किं नास्तीति प्रश्ने उत्तरयन्त्याचायवर्याःणवि दुक्खं गवि सुक्खं, णवि पीडा व विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जण्णं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥१७९॥ णवि इंदिय-उवसम्गा, णवि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य । ण य तिण्हा व छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥१८॥ णवि कम्मं णोकम्म, णवि चिंता व अटुरूदाणि । णवि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्याणं ॥१८१॥ हुए भी सतत शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानन्द, केवल ज्ञानज्योति स्वरूप अपनी आत्मा का श्रद्धान करते हैं, भावना भाते हैं, चितवन करते हैं और अनुभव करते हैं वे ही किसी न किसी दिन या किसी न किसी भव में नियम से ऐसे निर्वाणसौख्य को प्राप्त करेंगे । ऐसा समझकर आपको भी अनवरत अपने आत्मा की भावना करनी चाहिये ॥१७॥ ___मैंने समझ लिया कि सिद्धों में सौख्य आदि गुण हैं, पुनः उनके क्या क्या नहीं हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ—(दुक्खं णवि सुक्खं णवि पी णवि बाहा णेब विज्जदे) जहाँ दुःख नहीं, सुख नहीं, पोड़ा नहीं और बाधा भी नहीं है, (मरणं णवि जणं णवि) मरण नहीं और जन्म भी नहीं है, (तत्थेव य णिव्वाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है । (इंदिय-उवसग्गा गवि मोहो णवि विम्यिो णिहा य ण तिण्हा य ण छुहा णेव) जहाँ पर इन्द्रिय नहीं, उपसर्ग नहीं, मोह नहीं, विस्मय नहीं, निद्रा नहीं, तृषा नहीं और क्षुधा भी नहीं है, (तत्थेव य णिब्वाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है । (कम्मं णोकम्मं णवि चिता णवि अटरूहाणि णेव धम्मसुक्ककाणे णवि) जहाँ पर कर्म नोकर्म नहीं हैं, चिंता नहीं है, आर्तरौद्रध्यान नहीं हैं और धर्म शुक्लध्यान भी नहीं है, (तत्थेव य णिवाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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