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नियमसार-प्राभृतम् गते, तबनु व्यवहारालोचनासाधनबलन साध्या चतुविधाiप निश्चयालोचनातत्प्रतिपादनमुख्यत्वेन चत्वारि सूत्राणि गतानि ।
अत्र नियमसारग्रन्थे परमालोचनाधिकारे पूर्वकथितक्रमण आलोचनालुछनायिकृतीकरणभावशुद्धथभिधानः निश्चयालोचनास्वरूपतत्परिणतमहामुनिस्वरूपप्रतिपावनपरैः षड्भिर्गाथासूत्रः अन्तराधिकारद्वयं समाप्तम् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतनियमसारप्राभूतग्नन्थे जानमत्यायिकाकृतस्याद्वावचन्द्रिकानामटोकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये परमालो
चनानामा सप्तमोऽधिकारः समाप्तः । बल से साध्य जो चार प्रकार की निश्चय आलोचना है, उसके प्रतिपादन की मुख्यता से चार सूत्र हुये हैं।
इस नियमसार ग्रन्थ में परमालोचनाधिकार में पूर्वकथित क्रम से आलोचन, आलंछन, विकृतीकरण और भावशद्धि इन नामों से सहित निश्चय आलोचना का स्वरूप और उनसे परिणत महामुनि के स्वरूप को प्रदिपादन करने वाले इन छह गापासूत्रों से दो अंतराधिकार पूर्ण हुये हैं। इस प्रकार श्रीमद् भगवान् कुंदकुंदाचार्यप्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत "स्याद्वादचन्द्रिका' नाम की टीका में निश्चयमोक्षमार्ग नामक महाधिकार के अंतर्गत परम आलो
चना नाम का यह सातवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।