SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभृतम् ३२१ तात्पर्यमेतत्--ये रत्नत्रयनिलयाः चिताविलया धर्मालया जिनमुद्राधरा मुनयः सर्वदोषविशुद्धयर्थमात्मनः शुद्धयर्थ व्यवहारालोचनाविनाभाविनिश्चयालोचना कर्तुमोहन्से, त एव पुण्यशालिनः स्वपरभेदबोधमालिनो निश्चयेन शुद्धोपयोगिनो भूत्वा सत्वरमेव स्वात्मोपलब्धि सिद्धि प्राप्स्यन्तीति ज्ञात्वा प्रमावमपसार्य त्वयाऽपि दशविधवोष विरहितामालोचनां कृत्वा निजात्मशुद्धिः कर्तव्या ॥११२।। नमोऽस्तु जम्बूद्वीपसम्बन्धिस्वयंसिद्धजिनबिम्बसमेतानादिनिधनाष्टसप्ततिजिनमन्दिरेभ्यो मे पुनः पुनः, येषां प्रतिमन्दिरमष्टोत्तरशतजिनप्रतिमा, अचेतना अपि सचेतनेभ्योऽभीप्सितं फल प्रयच्छन्ति । अथवा पृथ्वीकायिकजीवराशिसमन्वितचित्रविचित्ररत्नमयपरिणता अपि अनन्तानन्तकालं यावदविनश्वराः सन्ति । ताभ्यश्च मे नमोऽस्तु । एवं परमालोचनालक्षणभेवप्रतिपादनपरत्वेन "जोकम्म" इत्यादिना द्वे सूत्रे तात्पर्य यह है कि जो मुनि रत्नत्रय के निलय-स्थान हैं, सर्व चिंताओं का विलय-अभाव कर चुके हैं और धर्म के आलय-स्थान हैं, वे जिनमुद्राधारी निग्रंथ दिगम्बर मुनि सर्व दोषों की विशुद्धि और आत्मा की शुद्धि के लिये व्यवहार आलोचना से अविनाभावी ऐसी निश्चय आलोचना को करना चाहते हैं। वे ही पुण्यशाली, स्व-पर भेद विज्ञान के स्वामी महामुनि निश्चय से शुद्धोपयोगी होकर शीघ्र ही अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धिरूप सिद्धि को प्राप्त कर लेंगे, ऐसा जान कर प्रमाद को दूर कर तुम्हें भी दशविध दोषों से रहित आलोचना करके निज आत्मा की शुद्धि करनी चाहिये ।।११२।। जंबूद्वीप संबंधी स्वयंसिद्ध जिनबिम्बों से सहित, अनादिनिधन अठत्तर जिनमंदिरों को मेरा पुनः पुनः नमस्कार होवे, जिनमें प्रत्येक मंदिर में एक सौ आठएक सौ आठ जिनप्रतिमायें हैं। ये अचेतन होकर ही सचेतन को इच्छित फल प्रदान करती है। अथवा पृथिवीकायिक जीवराशि से समन्वित चित्र-विचित्र रत्नत्रय परिणत होते हुये मी अनंतानंत काल तक अविनाशी हैं। इन सब प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवें। इस तरह परम आलोचना लक्षण भेद को प्रतिपादित करने की मुख्यता से "णोकम्म' इत्यादि रूप दो सूत्र हुये हैं, पुनः व्यवहार आलोचना रूप साधन के ४१
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy