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________________ ३२० नियमसार-प्राभृतम् प्रवर्तमानानामपि भावशुद्धिरुच्यते, किंतु निश्चयनयेन त्रिगुप्तिगुप्तानां परमसंयमिनामेव वीतरागनिर्विकल्पध्यानावस्थायां सा प्रादुर्भवति, सप्तमगुणस्थानादारभ्य क्षीणमोहपर्यन्तम् । ततो भावशुद्धयर्थ मनोमकंटो वशीकर्तव्यो युष्माभिः । प्रोक्तं च श्रीपद्मनंधाचार्यग-- निशाणार यादो प्रवि बध्यते त्वया तक्तः । प्रतिबंदीकृतमात्मनू ! मोचयति त्वां न संवेहः ॥३७॥ यदा यदा मनोमर्कट: पंचेन्द्रियविषयेषु सुखं मन्यमानस्तत्र धायेत् तदा सदा इत्थं संबोध्य ततः प्रत्यावर्तनोयो भवति । तथाहि-- नृत्यतरोविषयसुखच्छायालाभेन किं मनः पान्थ । भवदुःखक्षुत्पीडित ! तुष्टोऽसि गृहाण फलममृतम् ॥ वंदनादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करने पर भी भावशुद्धि कही जाती है। किंतु निश्चयनय से तीन गुप्तियों से सहित परमसंयमी मुनियों के ही वीतराग निर्विकल्प ध्यान अवस्था में यह भावशुद्धि प्रकट होती है, यह सातवें गुणस्थान से लेकर ऊपर क्षोणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत है। अत: आपको भावशुद्धि के लिये अपने मनरूपी मर्कट को वश में करना चाहिये । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है हे आत्मन् ! तुम मन के द्वारा कर्म से बाँधे गये हो। यदि तुम उस मन को बाँध लेते हो-वश में कर लेते हो, तो इससे वह प्रतिबंदी स्वरूप होकर तुमको छुड़ा देगा, इसमें संदेह नहीं है। ___ जब जब यह मनरूपी वानर पंचेंद्रियों में सुख मानकर वहाँ दौड़े, तब-तब इस प्रकार से संबोधित करके उसे विषयों से वापस लौटा लेना चाहिये । इसे ही बताते हैं "हे मनरूप पथिक ! तुम सांसारिक दुःखरूप क्षुधा से पीड़ित हो, तुम मनुष्य पर्यायरूप वृक्ष की विषयसुख' छाया को प्राप्ति से ही क्यों संतुष्ट हो रहे हो? तुम इस वृक्ष से अमृतरूप फल को ग्रहण करो।" १, पद्मनंदिपंच विशतिका, निश्चयपंचाशत् । २. पद्मनंदिपविशतिका, निश्चयपंचाशत् |
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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