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________________ नियमसार-प्राभृतम् येन ज्ञानतपोजात्यादिनिमित्तेन आत्मन्यहंकारो मानः, रसद्धिसातगारवभावो वा मानः । आलोचनाकालेऽन्यस्मिन् वा विषये कुटिलपरिणामो माया । इन्द्रियस्वास्थ्यादिषु लालसा लोभो युक्तस्थाने धनव्ययाभावो वा। तथैवैतादृशानां असंख्यातविधभावानां मध्य एकोऽपि भाव आत्मानं चूषयति, ततो भावस्य भावमनसः शुद्धिर्न शक्यतेऽतः तैर्मदादिभिविरहितो भाव एव भावशुद्धिरिति । कैःकथितम् ? लोयालोयप्पदरिमीहिं परिकहिय-लोकालोकप्रशिभिः सर्वज्ञदेवैरेव परिकथितम् । केषां कृते कथितम् ? भब्वाणं-भव्यजीवानामेव न चाभण्यानाम्, यतस्तेषां भावशुद्धरधिकार एव नास्ति। तद्यथा--क्रोधमानमायालोभस्पर्शनरसनानाणचक्षुःश्रोत्ररूपपंचेन्द्रियविषय - व्यापारख्यातिलाभपूजाभोगाकांक्षानिदानप्रतिभावानामभाबेनैव भावद्धिर्जायते । व्यवहारनयेन मुनीनां प्रारम्भावस्थायामालोचनाप्रतिक्रमणसामायिकस्तवधन्दनाविषु अर्थ लेना चाहिये ।' सज्वलन भानकषाय के उदय से ज्ञान, तप, जाति आदि के निमित्त से आत्मा में अहंकार का होना मान है, अथवा रसगारव, ऋद्धिगारव और सातगारव इन तीन गारव का होना भी मान है । आलोचना के समय अथवा अन्य किसी भी समय कुटिल परिणामों का होना माया है। इन्द्रिय, स्वास्थ्य आदि में लालसा होना या युक्त स्थान में धन खर्च नहीं करना लोभ है। इसी प्रकार के असंख्यात विध भावों में से एक भी भाव होता है, तो वह आत्मा को दूषित कर देता है, इनसे भावमन की शुद्धि शक्य नहीं है, अतः इन मद आदि से रहित भावों का होना ही भावशुद्धि कही गई है। ऐसा लोक अलोक के द्रष्टा सर्वज्ञदेव ने भव्य जीवों के लिये हो कहा है। चूँकि अभव्यों को भावशुद्धि के विषय में अधिकार ही नहीं है। इसी विषय को और कहते हैं--- क्रोध, मान, माया, लोभ--ये कषायें, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रइन पाँचों इन्द्रियों के विषय व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा की भावना, भोगों की आकांक्षा आदि निदान भाव, इन सबके अभाव से ही भावशुद्धि होती है । व्यवहारनय से मुनियों के प्रारंभ अवस्था में आलोचना, प्रतिक्रमण, सामायिक, स्तव,
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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