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________________ नियमसार-भाभृतम् शास्तृत्वं समासाद्य अर्हन् परमात्मा भयति स एवाप्तः । अध्यात्मभाषया तु निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतनिर्विकल्पसमाधिरूपाभेदरलयलक्षणकारणसमयसारेण समस्पन्नसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यानन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिरूपकार्यसमयसारः स एवाप्तः । त्यानेश्वशा वर्षे संसारिशोबा अनन्तचतुष्टयस्वभावत्वात् आप्ता एव । अतः कारणात् ममात्मा वर्तमानकालेऽपि शक्तिरूपेण आप्तः परमार्थदेवः परमात्मा अस्मिन् वेहवेवालये तिष्ठतीति मत्वा तत्त्वविचारकाले त्रिसन्ध्यं सामायिककाले वा अर्हस्वरूपोऽहम् आप्तोऽह, सर्वज्ञोऽहं, वीतरागोऽहम् वीतदोषोऽहम, इति चिन्तनीयम्। तथा शेषकाले आप्तस्वरूपजिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमायाः सन्निधौ तस्याहत्परमेष्ठिनो भक्तिः स्तुतिर्वन्दना उपासना आराधना च विधातव्याः। कि च, आप्तस्वरूपेण स्वस्यामा साध्यः, इमे चाप्ताः साधनभूताः । अतः साधनावलम्बनेनैव साध्यः साधनीयः । गुणस्थानविवक्षायां व्यक्तरूपेणाप्तस्त्रयोदशमगुणस्थाने, शक्तिरूपेण सर्वेष्वपि संसारिजीवेषु। कारणरूपेणाभेवरत्नत्रयपरिणतसंयतेष कारणकारणरूपेण भेदरत्नत्रया सर्वतत्त्वों को जान लेने से सर्वज्ञता को और मोक्षमार्ग के नेता होने से हित के उपदेशिता को अर्थात् इन वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप तीनों गुणों को प्राप्त करके अहंत परमात्मा हो चुके, हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। अध्यात्म भाषा में निर्विकल्प स्वसंबेदन ज्ञान से परिणत निर्विकल्प समाधिरूप अभेदरत्नत्रय लक्षण जो कारणसमयसार है, उसके बल से उत्पन्न हुए सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीय इन अनंतचतुष्टय की प्रकट ता से जो कार्यसमयसार हो चुके हैं, वे ही आप्त हैं, ऐसा समझना। ___शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव अनंतचतुष्टय स्वभाववाले होने से आप्त ही हैं। इस कारण मेरी आत्मा वर्तमान काल में भी शक्तिरूप से आप्त है, सच्चा देव है, परमात्मा है, जो कि इस शरीररूपी देवालय में रह रहा है, ऐसा मानकर तत्त्व विचार के काल में अथवा तीनों संध्या के सामायिक काल में "मैं अहंत्स्वरूप हूँ, मैं आप्त है, मैं सर्वज्ञ हं, मैं बीतराग हं, में दोषरहित है, ऐसा चितवन करना चाहिये। तथा अन्य काल में आप्त भगवान ऐसे जिनेंद्रदेव की प्रतिमा के सानिध्य में बैठकर उन्हीं अहंत परमेष्ठी की भक्ति, स्तुति, बंदना, उपासना और आराधना करना
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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