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नियमसार-प्राभृतम् वा प्रश्नापेक्षः, शरीरमलनिहरणार्थश्च, तस्मिन् सति कथमस्य संवरः स्यादिति ?" अत्रोच्यते
र्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ अथ च परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्तिः । तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्तिः समितिः । अतो गमनभाषणाभ्यवहरणग्रहणनिक्षेपोत्सर्गलक्षणसमितिविधौ अप्रमत्तानां तत्प्रणालिकाप्रसृतकर्माभावात् निभृतानां प्रासीदत् संवरः'।
.. तहि व्यवहारगुप्तीनी समितीनां च को विशेषः ? मनोवाक्कायाना पापक्रियानिवृत्तिः व्यवहारगुप्तिः, सम्यक्प्रवृत्तिः समितिः इति अन योरन्तरं स्पष्टमेव ।
अत एतन्निर्णीयते यत् दीक्षाग्रहणकाले भव्यः सर्थसंग त्यक्त्वा कश्चित् दिगंबरो भवति तदानीं तस्य सप्तमग्णस्थानयोग्यमभेवरूपमेकं सामायिकाख्यं भी प्रश्नों की अपेक्षा से होता है और शरीर के मल को दूर करने के लिए भी प्रवृत्ति होती है । पुनः इन सबके होने पर उन साधु को संवर कैसे होगा ?
समाधान–यहाँ कहते हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं।
परिमित काल पर्यंत मन वचन काय की क्रियाओं को रोक देना गुप्ति है। उसमें जो मुनि असमर्थ हैं, उनकी कुशल-शुभ कार्यों में जो प्रवृत्ति होती है, बहो समिति है । अत: चलना, बोलना, भोजन करना, कुछ उठाना-धरना और मल मूत्रादि को छोड़ना इन लक्षण वाली समितियों के पालन करने में अप्रमत्त-साबधानी से प्रवृत्त हुए मुनियों के जो प्रयत्न में तत्पर हैं, उनके उस निमित्तक आने वाले कर्मों के रुक जाने से संबर हो जाता है !
शंका-तब व्यवहार गुप्ति और समिति में क्या अंतर है ?
समाधान--- मन वचन काय की पाप क्रियाओं का रुक जाना व्यवहार गुप्ति है और चलने आदि में अच्छी तरह से प्रवृत्ति करना समिति है । इस प्रकार इन दोनों का अंतर स्पष्ट ही है।
इससे यह निर्णीत होता है कि दीक्षा ग्रहण के समय भव्यजीव सर्वपरिग्रह को छोड़कर निग्रंथ दिगंबर मुनि हो जाता है, उस समय उसके सातवें गण१. तत्त्वार्थराजवात्तिक अ. ९, सूत्र ५ |