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________________ २०१ नियमसार-प्राभृतम् रक्षा । तथा साधोः पापस्य निरोधो गुणानां रक्षा वा भवन्ति ता गुप्तयः इति । एवं व्यवहारगुप्तिषु पापासूपनिरोधोमुख्यरूपेण, निश्चयगुप्तिषु पुण्यपापानवनिरोधे सति निर्विकल्पध्यानावस्था चेति । ननु यथा गुप्तिषु व्यवहारनिश्चयनयाभिप्रायेण भेदो वणितस्तथा समितिषु कथं न कथितः भगवद्धिः श्रीकुंदकुंददेवैः ? सत्यमुक्तं भवता; परमेतन्निरूपणया एव ज्ञायते यत्तासां भेदो न संभवति, अन्यथा सूत्रकारैर्वक्तव्य एवासोत् । अन्यच्च यदा साधुर्गुप्तिषु स्थातुं न शक्नोति, तदा सम्यक्प्रवृत्त्यर्थ समितीः पालयति । उक्तं च श्रीमद्भट्टाकलंकदेवैः___ यदि भूतिपरित्याग कास्येन कर्तुमशक्नुवतः संक्लेशनिवृत्तये योगनिरोधः प्रतिज्ञायते स मावन्न भवति तावक्नेन अवश्यं प्राणयात्रानिमित्तं तत्प्रत्यनीकभावात् परिस्पन्दः कर्तव्यः, वाकप्रयोगो रक्षा खाई या परकोटे से होती है, वैसे ही साधु के पापों का निरोध या गुणों की रक्षा इन गप्तियों से होती है। इस प्रकार व्यवहार गुप्तियों में मुख्यरूप से पापास्रव का निरोध होता है और निश्चय गुप्तियों में पुण्य-पाप दोनों प्रकार का आस्रव रुक जाने पर निर्विकल्प ध्यान अवस्था रहती है। शंका-जैसे यहाँ गुप्तियों में व्यवहार-निश्चयनय के अभिप्राय से भेद किया है, वैसा ही भगवान् श्रीकुन्दकुन्ददेव ने समितियों में क्यों नहीं किया ? समाधान--आपका कहना ठोक है, किंतु इस निरूपण से ही जाना जाता है कि गुप्तियों के सदृश समितियों में भेद संभव नहीं है । अन्यथा सूत्रकार आचार्यदेव कहते ही कहते। दूसरी बात यह है कि जब मुनि गुप्तियों में स्थित नहीं रह सकते हैं, तभी अच्छी सावधान प्रवृत्ति के लिए समितियों का पालन करते हैं। श्रीमान् भट्टाकलंकदेव ने कहा भी है---- शंका--जब शरीर का परित्याग पूर्णरूप से करने में असमर्थ होते हैं, तब संक्लेश को दूर करने के लिए योगों का निरोध स्वीकार किया गया है और वह जब तक नहीं होता है तब तक उन्हें अवश्य ही प्राणयात्रा के लिए उनसे विपरीत (गुप्ति से अतिरिक्त) परिस्पंदन-प्रवृत्ति करना चाहिए । अथवा वचन का प्रयोग
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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