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________________ नियमसास्त्राभूतम् विशुद्धिर्भावमनः ।" इदं मनः चित्तं येषां विद्यते त एव समनस्काः संजिन उच्यन्ते । "हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्गुणदोषविचारणात्मिका संज्ञा"। अत एव उभयमनोयुक्तस्य महामुनेः पुरुषस्य मावमनः चित सन्मादक र बाहो। इद सर्वोत्कृष्टं ज्ञानं भेवविज्ञानमेव, तत्तु यदा मुनेः स्यात्तदैव सर्वदोषापनोवार्य तस्य निश्चयप्रायश्चित्तं भवति । किंच, भेदविज्ञानमेव साक्षान्मुक्तेः कारणम् । उक्तं च श्रीअमृतचंद्रसूरिणा "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केधन । अस्यवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥" तात्पर्यमेतत-अपहृतसंयमी मुनिः परमापेक्षासंयममवलंब्य भेदविज्ञानबलेन परमसमाधो स्थिस्या सहजशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमात्मानं यदा ध्यायति, तदानीमेव नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की विशुद्धि भावमन है । यह मन-चित्त जिनके हैं, वे ही समनस्क-संज्ञी कहलाते हैं । ___ हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में जो गुण और दोषों के विचार करने की क्षमता है, उसे 'संज्ञा' कहते हैं। यह 'संज्ञा' जिन्हें है, वे 'संज्ञी' कहलाते हैं। ___इसलिये दोनों प्रकार के मन से सहित महामुनि के भावमन या चित्त को ज्ञान शब्द से कहना शक्य है । यह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान भेदविज्ञान ही है, जब वह ज्ञान मुनि के होता है, तभी उनके संपूर्ण दोषों को दूर करने के लिये निश्चय प्रायश्चित्त होता है, क्योंकि भेदविज्ञान ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है निश्चय से जो कोई भी सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं। और निश्चित ही जो कर्मों से बँधे हुए हैं, वे इस भेदविज्ञान के अभाव से हो बंधे यहाँ तात्पर्य यह है कि अपहृतसंयमी मुनि परमोपेक्षा संयम का अवलंबन लेकर भेदविज्ञान के बल से परमसमाधि में स्थित होकर सहजशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव २. तत्त्वार्थवात्तिक । १. तत्त्वार्थवार्तिक, अध्याय २, सूत्र ११ को वार्तिक । ३. समयसार कलश, संवर अधिकार ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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