SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभुतम् शुद्धमा विचन कृता सुद्धो बुलो लिनो निरामयः परमात्मा भवतीति ज्ञात्या प्रारम्भावस्थायां षष्ठगुणस्थानयोग्यसंयमभावना कर्तव्या ॥११६॥ श्रेष्ठतपश्चरणमपि प्रायश्चित्तमिति निगदन्ति मूरिवर्याः-- कि बहुणा भणिएण दु, वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह, अणेयकम्माण खयहेऊ ॥११७॥ बहुणा भणिएण दु कि-बहुना अधिकेन भणितेन तु किं प्रयोजनम् ? महेसिणं सव्वं वरतवचरणं पायच्छितं जाणह-प्रजाश्रमणाफाशगामिरसाविनानाविद्धिसमन्धिताना महर्षीणां वरं श्रेष्ठं तपश्चरणं सर्वमपि तत्प्रायश्चित्तं जानीहि । किंच अणेयकम्माण खयहऊ-अनेककर्मणां कटुकफलदायिबहुविधासाताशोकाविकर्मप्रकृतीनां भयहेतुत्वात्। इतो विस्सरः-- तपो द्वधा बाह्याभ्यन्तरभेवात । उक्तं च मलाचारे आत्मा को जब ध्याते हैं, तभी शुद्ध प्रायश्चित्त करके शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, परमस्वस्थ परमात्मा हो जाते हैं। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में छठे गुणस्थान के योग्य संयम की भावना करनी चाहिये ॥११६।। श्रेष्ठ तपश्चरण भी प्रायश्चित्त है, ऐसा आचार्यवर्य कहते हैं अन्वयार्थ- (बहुणा भणिएण दु किं) अधिक कहने से क्या ? (महेसिणं वरतवचरणं सव्वं पायच्छित्तं जाणह) महर्षियों का जो श्रेष्ठ तपश्चरण है वह सब प्रायश्चित्त है, ऐसा जानो । (अणेयकम्माण खयहेऊ) वही अनेक कर्मों के क्षय का टीका-बहुत अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? प्रज्ञाश्रमण, आकाशगामी, क्षीरस्रावी रस ऋद्धि आदि अनेक प्रकार को ऋद्धियों से समन्वित महर्षियों का जो श्रेष्ठ तपश्चरण है, वही सब प्रायश्चित्त है, ऐसा जानो, क्योंकि वह तप हो कटुक फल देने वाले असाता, शोक आदि अनेक कर्मों के क्षय का हेतु है । इसी का विस्तार हैतप दो प्रकार का है--बाह्यतप और अभ्यंतर तप । मूलाचार में कहा भी है
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy