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________________ नियमसार-प्राभतम् ५३३ तथैव स्वामिनोक्तम् आप्तोपशमनुल्लंध्यमवृष्टेष्टविरोधकम् । तस्योपदेशकरसाव शास्त्रं कापथघटनम् ॥ श्रीकूदकुंबदेवा गुरूणामपि गुरवो गरीयांस आचार्याः पापभोरव आसन, अत एषां वचनेषु पूर्वापरविरोधो दोषो न संभवति । ननु अस्मिन्नेव ग्रन्थे प्राक् पंचपरमेष्ठिना भक्तिकथनं पश्चात् "जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो" इत्यादिना सा भक्तिक्रिया निषिद्धाऽस्ति, अयं पूर्वापरविरोधो दृश्यते ? नेतद् थक्तव्यम्, व्यवहारनिश्चयनययोः क्रिययोश्च परस्परसोपेक्षत्वात् साधनसाध्यभावात् कारणकार्यभाषाढा नैष पूर्वापरविरोधः, प्रत्युत ये केचिद् एकान्तेन व्यवहारनयं व्यवहाररत्नत्रयं च मिथ्या कथयित्वा निश्चयं मन्यन्ते, त इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टा एकान्तयाविनः स्वपरवंचका एव । उसी प्रकार से श्री स्वामी समंतभद्र ने कहा है जो शास्त्र आप्त के द्वारा कथित है, जिसका कोई उल्लंन नहीं कर सकते, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से विरोध रहित है, तत्त्वों के उपदेश को करने वाला है और कुपथ का निवारण करने वाला है, बही शास्त्र सब जोवों का हित करने वाला होने से सच्चा शास्त्र है। श्री कुन्दकुन्ददेव, गरुओं के भी गुरु, गरिमाशाली, पापभीरु महान आचार्य हुथे हैं, अतः इनके वचनों में पूर्वापरविरोध संभव नहीं है । शंका-इसी ग्रन्थ में पहले पंचपरमेष्ठियों की भक्ति का कथन किया है अनंतर कहा है कि 'जो संयत्त शुभभाध में वर्तन करता है वह अन्यवश है' इत्यादिरूप से भक्ति क्रिया का निषेध किया है । यह पूर्वापरविरोध दिख रहा है । समाधान-- ऐसा नहीं कहना, क्योंकि व्यवहार और निश्चय कियार्ये परस्पर सापेक्ष रहती हैं। इसमें साधन-साध्यभाब है अथवा कारण कार्यभाव है। इसलिये इसमें पूर्वापरविरोध नहीं है । प्रस्तुत जो कोई एकांत से व्यवहारनय को और व्यवहाररत्नत्रय को मिथ्या कहकर निश्चय को मानते हैं वे इतो भ्रष्ट, ततो भ्रष्ट, एकांतवादी अपने और पर के वंचक ही हैं । १. रलकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ९।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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