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नियमसार-प्राभृतम्
नि:श्चासो भावस्तेन सहिता इहलोकपरलोक संबंधिसांसारिक सुखाभिलावरहिताः, अथवा ख्यातिला पूजादिभावना रहितास्ते उपाध्यायपरमेष्ठिनः कथ्यन्ते ।
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तद्यथा - - सफलचारित्रधारिणोऽर्हन्मुद्रासमन्विता ये निन्यदिगम्बरा मुनय एकादशांगं चतुर्दशपूर्वं च स्वयमधीयते परान् मुमुक्षूनध्यापयन्ति चेत्युपाध्याया भवन्ति । एकादशांगचतुर्दश पूर्वगतग्रन्थानां पठनपाठनमुख्यत्वेन एषां पंचविंशतिमूलगुणाः कथ्यन्ते, अथवा तात्कालिकतेषु पारंगता अपि उपाध्यायाः भवन्ति । उक्तं च धवलाटीकायां-
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“चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचन व्याख्यातारो वा ।”
इमे उपाध्यायाः पंचमहाव्रतादित्रयोदशविधचारित्रमष्टाविंशतिमूलगुणांश्च पालयन्तः शिष्यान् अध्यापयन्त उपविशन्तोऽपि संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः एवम्भूतानुपाध्याय परमेष्ठिनो ज्ञात्वा किं कर्तव्यम् इति चेत् ? संसारसमुद्रतरणोपायभूतानामेषां
रहित, इहलोक - परलोक संबंधी सांसारिक सुखों की अभिलाषा से रहित, अथवा ख्याति लाभ पूजादि भावना से रहित ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं ।
इसी को कहते हैं -- जो सकलचारित्र के धारी, अर्हतमुद्रा से समन्वित, निग्रंथ दिगम्बर मुनि हैं, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का स्वयं अध्ययन करते हैं तथा अन्य मुमुक्षु मुनियों को अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं । ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों के पठन-पाठन की मुख्यता से इनके ये पच्चीस मूलगुण कहे गये हैं । अथवा उस काल के समस्त श्रुत में पारंगत भी उपाध्याय होते हैं । धवला टीका में कहा है
"चतुर्दश पूर्वरूप विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले अथवा तात्कालिक प्रवचन ग्रन्थों के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं ।
ये उपाध्याय परमेष्ठी पाँच महाव्रत आदि तेरह प्रकार के चारित्र और अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुए, शिष्यों को पढ़ाते हुए और उपदेश देते हुए भी शिष्यों का संग्रह तथा अनुग्रह नहीं करते हैं ।
प्रश्न --- ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर - संसार समुद्र से तिरने के लिये उपायभूत इन गुरुओं को शरण १. धवला पुस्तक १ पृष्ठ ५१ ।
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