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________________ नियमसार- प्राभृतम् स्वीकारस्तेषामेव पोषणमशनशयनादिचिन्ता इत्थंभूता चर्या चारित्रं भवति हि स्फुटम् । केषां ? रावां वर्षावयचाविहितानाम् । इत्थंभूताना वार्य परमेष्ठितो ज्ञात्वा कि कर्तव्यम् ? इति चेत् ? एतान् विज्ञाय परमादरेण तेषां आश्रयो गृहीतव्यस्ततो रत्नत्रयसिद्धिः समाभिश्च भविष्यति ॥ ७३ ॥ २१६ मोक्षपथभ्रष्ट पथिकानां सन्मार्ग दर्शकोपाध्यायपरमेष्ठिनः स्वरूपं आचक्षते सूरयः -- रयणत्तय संजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । निक्कख भावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥७४॥ उवज्झाया एरिसा होंति उपाध्यायाः ईदृशाः भवंति । कीदृशास्ले ? रयणत्तय संजुत्ता-रत्नत्रयसंयुक्ताः । पुनः कथंभूताः ? जिणकहियपयत्यदेसया - जिनकथितपदार्थदेशकाः, जिनः सर्वज्ञदेवैः कथिताः उपदिष्टाश्च मे पदार्थाः जीवाजीवायस्तेषां देशका उपदेशकर्तारः । पुनश्च कीदृशाः ? सूरा - शूराः । पुनरपि किविशिष्टा ? णिक्कखभावसहिया - निःकांक्षभावसहिताः इन्द्रियभोगाकांक्षाया निर्गतो और शिक्षा ये तत्पर ऐसे शिष्यों को स्वीकार करते हैं और उनके ही भोजन शयन आदि की चिन्ता करते हुए उन्हीं का पोषण करते हैं, इस प्रकार की सभी चर्या धर्मानुरागचारित्र सहित सरागी आचार्य परमेष्ठी की होती है । प्रश्न - - ऐसे आचार्य परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर -- इनको जानकर परमादर से इनका आश्रय लेना चाहिये । इससे रत्नत्रय की सिद्धि और समाधि की प्राप्ति होवेगी ॥७३॥ अब आचार्य मोक्षपथ से भ्रष्ट हुए पथिकों को सन्मार्ग दिखलाने वाले उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं- अन्वयार्थ - - ( रयणत्तयसंजुत्ता) जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं, (जिणकहियपयत्थदेसया सूरा) जिनदेव कथित पदार्थों के उपदेशक हैं, शूरवीर हैं, ( णिक्कंखभावसहिया) और कांक्षा रहित भावों से सहित हैं, (एरिसा उवज्झाया होंति ) ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं ||७४ || टीका -- जो रत्नत्रय से सहित हैं, सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट जीव-अजीव आदि पदार्थों का उपदेश देने वाले हैं, शूर हैं और इन्द्रिय भोगों की आकांक्षा से
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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