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________________ नियमसाराभृतम् २१५ पंचेन्द्रियसंबंधिविषयान् त्यक्त्वा पूर्णवैराग्यशालिनः, इष्टानिष्टविषयेषु वा समभाविनः धैर्योस्साहादिगुणोपेताः, शिष्याणां संग्रहेऽनुग्रहे निग्रहे च कुशलाः दीक्षाशिक्षाप्रायनिसमादिदायिनः, अन्यासिकाश्रावकमाधिकाणां समूहश्चतुर्विधसंघस्तस्य नायकाः, आचारवत्वाधाराववादिषट्त्रिंशद्गुणसमन्विताः, जिनरूपधराः सूरिपरमेष्ठिनो भवन्ति । ननु पुत्रमित्रधनसमादिसर्वसंगं त्यक्त्वा शिष्यादिपरिग्रहमावदाना अपि ते निष्परिग्रहाः कथम् ? इति चेत्, सत्यमुक्तं भवता, किन्तु मुमुक्षूणां संग्रहो न तु परिग्रहः । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्ददेवैः प्रवचनसारमहाप्राभूतग्रन्थे-- दसणणाणुवदेसो सिस्सगहणं च पोसणं तेसि। चरिया हि सरागाणं जिणिवपूजोवबेसो व ॥२४८॥ तात्पर्यवृत्तौ कथितं यत् रत्नत्रयाराधना शिक्षाशीलानां शिष्याणां ग्रहणं जो पंचेन्द्रिय संबंधी विषयों को छोड़कर पूर्ण वैराग्यशाली हैं, इष्ट या अनिष्ट विषयों में समभावी हैं, धैर्य उत्साह आदि गुणों से सहित हैं, शिष्यों का संग्रह करने में, उनके ऊपर अनुग्रह करने में और उनका निग्रह करने में कुशल हैं, दीक्षा, शिक्षा, प्रायश्चित्त आदि देने वाले हैं, मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका इनका समूह वही हुआ चतुर्विध संघ, उसके नायक हैं, आचारवत्त्व, आधारवत्त्व आदि छत्तीस गुणों से सहित हैं और जिनमुद्रा को धारण करने वाले हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। शंका-पुत्र, मित्र, धन, महल आदि सर्व परिग्रह छोड़कर शिष्यादि परिग्रहों का संग्रह करने वाले भी वे सूरि निष्परिग्रही कैसे हैं ? समाधान--आपने सत्य कहा है, फिर भी वह मुमुक्षु जीवों का संग्रह है, न कि परिग्रह । श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार महाप्राभृत ग्रन्थ में कहा भी है-दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण तथा जिनेन्द्र पूजा का उपदेश यह सब सराग संयमी मुनियों की चर्या है। . इसी गाथा का तात्पर्यवृत्ति दीका में कहा है कि-जो रत्नत्रय को आराधना
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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