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________________ २१८ नियमसार-प्राभूतम् परमभक्त्या शरणं गृहीत्वा एभ्यश्च जिनागममधीयानेन केवलज्ञानबोजभूतभावश्रुतप्राप्त्यर्थं प्रयत्नो विधातब्ध. ॥७४॥ स्वात्मसिद्धिसाधकस्य साधु-परमेष्ठिनः स्वरूपं प्ररूपयन्ति श्रीकुदकुंददेवाः -- वापारविष्पमुक्का चविहाराहणासयारत्ता । *णिगंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ॥७५।। साहू एदेरिसा होंति-साधवः एतादृशाः भवन्ति । कथंभूतास्ते ? बावारविषमुक्का-व्यापारांवप्रभुक्ताः, मनायाबकायानाम् अशुभष्टा व्यापारः, तेन सर्वाशुभव्यापारेण विप्रमुक्ताः । पुनः कथम्भूताः ? चउबिहाराहणासयारत्ता-चतुर्विधाराधनासदारक्ताः दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिः चतुविधा या आराधनाः, सासु सदा रक्ता अनुरागयुक्ताः । पुनश्च कीदृशाः ? णिगंथा-निग्रंथाः पविशतिधा बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिभ्यो निर्गता निग्रन्थाः । पुनश्च किविशिष्टाः ? णिम्मोहा-निर्मोहाः, दर्शनमोहचारित्रमोहेभ्यो निर्गताः, एतादृशाः साधुपरमेष्ठिनः कोय॑न्ते । लेकर इनसे जिनागम का अध्ययन करते हुए तुम्हें केवलज्ञान के बीज ऐसे भावश्रुत को प्राप्त करने के लिए प्रयत्ल करना चाहिये ॥७४।। श्रीकुंदकुंददेव अपनी आत्मसिद्धि के साधक ऐसे साधु परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ—(वावारविष्णमुक्का) जो व्यापार से रहित, (चव्विहाराहणासयारत्ता) चारों प्रकार को आराधना में सदा तत्पर (णिग्गंथा गिम्मोहा) परिग्रहग्रंथि रहित और मोहरहित हैं, (एदेरिसा साहू होंति) इस प्रकार के साधु होते टीका-जो मन वचन काय की अशुभ चेष्टारूप व्यापार से अथवा सर्व अशुभ व्यापार से रहित हैं, जो दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधनाओं में सदा अनुरागयुक्त हैं, जो दशविध बाह्म और चौदह प्रकार के अंतरंग ऐसे चौबीस प्रकार की ग्रंथि-परिग्रह से रहित होने से निम्रन्थ हैं और दर्शनमोह तथा चारित्रमोह से रहित होने से निर्मोही हैं, ऐसे गुरु साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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