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________________ नियमसार - प्राभृतम् २१९ } तथाहि - अनन्तज्ञान दर्शन सुखवीर्यात्मकशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधव. । पंचमहाव्रताद्यष्टाविंशतिमूलगुणसमन्विताः द्वावशविधतपोद्वाविंशतिपरीषा रूपचतुस्त्रिशद् - उत्तरगुणधरा आतापन वृक्षमूला भ्रावकाशा वियोगधारिणः अन्यान्यनानाविघयोगकुशला वा चतुरशीतिलक्षापर्यंतानां यथाशक्ति उत्तरगुणानां धारिणो वा साधुपरमेष्ठिनो भवन्ति । कश्चिदाह - ननु येषां स्वात्मोपलब्धिस्वरूपा सिद्धिः संजातास्तेऽन: विद्वानार्याः स्वात्मसिद्धयभावत्वेन तेषां देवस्याभावात् ? इति चेन्नः कुतः ? यतो रत्नत्रयस्यैव वेवत्वं तस्य च तेषु अपि विद्यमानत्वान्न देवत्वहानिराचार्यादीनाम् । उक्तं च धवलायाम् — "देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेवतोऽनन्तभेवभिन्नानि तद्विशिष्टो जीवोऽपि वेबः " । उसे हो कहते हैं--जो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का साधन करते हैं, वे साधु होते हैं। ये पाँच महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुणों से सहित हैं, बारह प्रकार के तप और बाईस प्रकार की परोषहजय इन चौंतीस उत्तरगुणों का पालन करते हैं, आतापन, वृक्षमूल और अभ्रावकाश आदि योग को धारण करने वाले हैं, अथवा और भी अनेक प्रकार के योग धारण करने में कुशल हैं, अथवा चौरासी लाख पर्यन्त उत्तरगुणों में यथाशक्ति उत्तरगुणों को धारण करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं । शंका -- जिनको अपनी आत्मा की उपलब्धि स्वरूप सिद्धि हो चुकी है, ऐसे अर्हत और सिद्ध नमस्कार के योग्य है, न कि आचार्य आदि, क्योंकि इनमें स्वात्मसिद्धि का अभाव होने से उनमें देवपने का अभाव है । समाधान - ऐसा नहीं कहना, शंका- क्यों ? समाधान - क्योंकि रत्नत्रय को ही देवत्व है और वह रत्नत्रय इनमें भी विद्यमान है, इसलिए आचार्य, उपाध्याय साधुओं में भी देवत्व की हानि नहीं है । धवला टीका में कहा भी है तीन रत्न ही देव हैं, इनके अपने भेद से अनंतभेद हो जाते हैं, इन रत्नत्रय से सहित जीव भी देव हैं । अगर ऐसा नहीं मानोगे तो सभी अशेष जीवों में भी १. धवला पु० १ ० ५१ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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