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________________ २२० नियमसार-प्राभूतम अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः । तत आचार्यादयोऽपि देवाः, रलत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् । "सम्पूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्लैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्थापि सदसत्त्वापत्तेः । न चाचार्याविस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकणि, रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तस्कणादप्युपलम्भात् । तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम् ।।५।। ज्ञातं मया पंचगुरूणां पूज्यत्वम् परं सर्वकर्ममलकलंकरहितेभ्यः सिद्धेभ्यः प्राक अर्हतां नमस्कारं कथं क्रियते ? इति चेन्न, गुणेनधिकाः सिद्धाः एतज्ज्ञानमपि अहंदुपदेशेनैव जायते, आप्तागमपदार्थानां जान था, अतोऽहत्प्रसादस्वरूपोपकारापेक्षया तेषामादौ नमस्कारो न बोषाय । सम्यग्दृष्टीनाम् ? नायं पक्षपातो दोषहेतुः प्रत्युस गुणनिबंधन एव । उक्तं चाचारसारे--"गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोवः प्रकोयते ।।२ देवपने को आपत्ति आ जायेगी। इसलिये आचार्य आदि भी देव हैं, क्योंकि उनमें भी रत्नत्रय का अस्तित्व समान है । शंका-संपूर्ण रत्नत्रय ही देव हैं, न कि एकदेश रत्नत्रय ? समाधान--यदि रत्नत्रय के एकदेश में देवत्व का अभाव भानोगे ती समस्त रत्नत्रय में भी देवत्व का अभाव ही रहेगा । शंका--आचार्य आदि में स्थित जो रत्नत्रय हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे एकदेश रत्नत्रय हैं ? समाधान—ऐसा नहीं कहना, अग्निसमूह का कार्य है पलाल के ढेर को जला देना, सो वह कार्य उसके एक कण-चिनगारो में भी पाया जाता है । इसलिए आचार्य आदि भी देव हैं, यह बात निश्चित हुई।" शंका--पंच परमेष्ठी में पूज्यता है, यह बात तो मैंने समझ ली, किंतु सर्वकर्म मल से रहित सिद्धों के पहले अहंतों को नमस्कार कैसे किया है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, सिद्ध भगवान् सभी की अपेक्षा गुणों में अधिक हैं, यह ज्ञान भी अहंत के उपदेश से ही होता है । अथवा आप्त आराम और पदार्थों का जान भी अहंत के उपदेश से हो होता है। इसलिए अर्हत के प्रसादस्वरूप जनके उपकार की अपेक्षा से उनको पहले नमस्कार करना दोषप्रद नहीं है । शंका-सम्यग्दृष्टि जीवों को यह पक्षपात क्यों है ? समाधान--यह पक्षपात दोष का हेतु नहीं है प्रत्युत गुण का हो हेतु है ! आचारसार ग्रंथ में कहा भी है "गुणों में जो पक्षपात है, वह प्रमोद कहलाता है।" १. धवला पु० १, पृ० ५३-५४ । २. आचारसार ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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