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नियमसार-प्राभृतम्
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इति ज्ञात्वा स्वस्यानन्तचतुष्टयव्यक्त्यर्थं भेदाभेदरत्नत्रयबलेन परकर्तृत्वं भोक्तृत्वं च परिहरणीयम् ||१८||
जीवतत्वस्य स्वरूपं प्रतिपाद्य उदधिकारं उपसंहरन्ती भगवन्तः अना मूलनयद्रव्यविवक्षां विवृ
ण्वन्ति-
दव्वथिएण जीवा वदिरित्ता पुख्वभणिदपज्जाया । पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ।। १९ ।।
जोवा - जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च सर्वेऽपि जीवाः । पुथ्वभणिदपज्जाया दिरित्ता - पूर्वभणितपर्यायात् व्यतिरिक्ताः पूर्वोक्तस्वभावविभावपर्यायेभ्यो भिन्नाः । केन प्रकारेण ? दव्त्रत्थिएण-द्रव्याधिकेन द्रव्याथिकनयापेक्षया इति । पुनः केनापि प्रकारेण तेभ्यो युक्ताः सन्ति न वा ? सन्ति इति उच्यते, जीवा - सर्वेऽपि जीवाः । पज्जयणएण दुविहेहि संजुत्ता होंति - पर्यायनयेन द्वाभ्यां संयुक्ता भवन्ति, पर्यायार्थिकनयेन स्वभावविभावाभ्यां द्वाभ्यामपि पर्यायाभ्यां सहिता भवन्ति इति क्रियाshreeसंबंध: ।
छद्मस्थमुनि और केवली भगवान् न कर्मों के कर्ता हो हैं और न भोक्ता ही हैं, फिर भी सिद्धांत ग्रंथ के कथन का भी ध्यान रखा गया है । तथा च इनके भी ज्ञेयपदार्थों को जानने देखने रूप कर्तृत्व और अतीन्द्रिय अनंत सुख के अनुभवरूप भोक्तृत्व को भी बताया गया है || १८ ||
भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव जीवतत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करके इस जीवाधिकार का उपसंहार करते हुए अब मूल दो नयों की विवक्षा को बताते हैं-
अन्वयार्थ - ( जीवा ) सभी जीव ( दव्त्रत्थि एण) द्रव्यार्थिक नय से ( पुञ्चभणिदपज्जाया वदिरिता) पूर्वोक्त सभी पर्यायों से रहित हैं । ( जीवा ) ये ही जीव ( पज्जयणएण ) पर्यायार्थिक नय से ( दुविहिं संजुत्ता) स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित (होंति) होते हैं ।। १९॥
टोका - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा संसारी और मुक्त, सभी जीव पूर्व में कथित स्वभाव और विभाव पर्यायों से भिन्न हैं । पुनः पर्यायाथिक नय की अपेक्षा