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________________ नियमसार-प्राभृतम् त्वान्निष्क्रियटकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावः सहजशुद्धनिर्विकारपरमानन्दकलक्षणसुखामतसमद्रनिमग्नश्च , तथापि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन ज्ञानावरणाविपुद्गलकर्मणां कर्ता भोक्ता च । तथाऽशुद्धनिश्चयनयेन कर्मजनितरागद्वषादीनां कर्ता भोक्ता च । क्रियारूप तीनों योगों से रहित सहज शद्ध द्रव्य होने से निष्क्रिय, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक एक स्वभाववाला है, सहज शुद्ध निर्विकार परमानंद एक लक्षण सुखरूपी अमृतसमुद्र में निमग्न है, फिर भी अनुपरित असद्भूत व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। उसी प्रकार अशुद्धनिश्चय से कम से उत्पन्न हुए राग देषादि भावों का वर्ता और भोक्ता है। ऐसा जानकर अपने अनंतचतुष्टय को प्रगट करने के लिये भेद-अभेद रत्नत्रय के बल से पर का कर्तृत्व और भोक्तृत्व छोड़ना चाहिये । भावार्थ-यहाँ पर श्रीकुंदकंददेव ने आत्मा को पुद्गलकों का कर्ताभोक्ता कहा है। यह कर्तृत्व भोक्तृत्व कर्म प्रकृतियों का ही है। अतः कर्मकाण्ड ग्रंथ के अनुसार जिन-जिन कर्म प्रकृतियों को यह बाँधता है, उनका कर्ता हो जाता है और जिन-जिन कर्म प्रकृतियों के उदयागत फल को भोगता है, उन उन कर्मों का भोक्ता कहा जाता है । इन अपेक्षा गुणस्थानों के अनुसार उन-उन प्रकृतियों के बंध और उदय को दिखला कर स्पष्ट कर दिया है कि कर्म का कर्तृत्व सयोगकेवली भगवान् तक भी है, और उदयागत फल की अपेक्षा कर्म का भोक्तत्व चौदहवें गुणस्थान के अंत तक है। फिर भी मोहनीय के अभाव में स्थिति-अनुभाग-बंध नहीं होता है, और उदयागत फल के अनुभव में रति अरति का अभाव होने से, हर्ष विषाद म होने से, इंद्रिय-जन्य सुख-दुःख भी नहीं होते हैं । अतः दश गुणस्थान तक ही कर्मों का कर्तृत्व-भोक्तृत्व समझना चाहिये । इसमें भी बुद्धिपूर्वक कतृत्व-भोक्तृत्व निर्विकल्प ध्यान में संभव न होने से छठे गुणस्थान तक ही शुभ-अशुभ मन बचन काय के व्यापार होते हैं, और यहीं तक ही बुद्धिपूर्वक सुख-दुःख का वेदन होता है । अतः दशवें गुणस्थान तक के शुद्धोपयोग में बुद्धिपूर्वक कतृत्व-भोक्तृत्व नहीं है, अबुद्धिपूर्वक अवश्य है। इन्हीं सब बातों का इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में स्पष्टीकरण किया गया है । गुणस्थानों की अपेक्षा और नयों की अपेक्षा से यह कतत्व भोक्तत्व घटित किया गया है । वास्तव में मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर वीतरागी
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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