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________________ नियमसार-प्रांभृतम् ३२५ वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो-पंच महावसानि, पंचसमितयो नवविधशीलम्, अष्टादशसहस्रब्रह्मचर्य नानाप्रकारोत्तरगुणा वा, प्राणोन्द्रियप्रकारेण द्वादशसंयमाः येषां परिणामः परिणतिः प्रवृत्तिर्वा । करणणिग्गहो भावो-पंचेन्द्रियाणां निग्रहो निरोधो मनसश्च । एतादशो भावः । सो पायछित्तं हवाद-स भाव एव प्रायश्चित्तं भवति, संसारकारणमोहरागद्वेषनिराकरणत्वात् । अणवरयं चेव कायब्वो-भवद्धिः मुनिनायैः अनवरतं चैव कर्तव्यः । इतो विस्त।-- साधूनां स्वगृहीतव्रतेषु ये केचित् अतिचारानाचारादिदोषाः संजायन्ते, अथवा कश्चिदपि अपराधी भवेत्, तहि तदोषदूरीकरणाय आचार्या यत्किमपि वण्डं प्रयच्छन्ति, तवेव प्रायश्चित्तं कथ्यते । उक्तं च मूलाचारे श्रीकुन्दकुन्वदेवेरेव-- पायच्छित्तं ति तयो, जेण विसुज्झवि हु पुष्यकयपाषं । पायच्छितं पत्तोत्ति तेण वृत्तं वसविहं तु'। टीका-पांच महाव्रत, पाँच समिति, नवप्रकार का शोल अथवा अठारहहजार भेदरूप ब्रह्मचर्य या अनेक प्रकार के उत्तरगुण, प्राणी संयम और इंद्रिय संयम के भेद से बारह प्रकार के संयम--इन सबका जो परिणाम या प्रवृत्ति है तथा पाँचों इन्द्रियों का निग्रह और मन का भी निरोध, ये सभी भाव ही प्रायश्चित्त हैं, क्योंकि ये संसार के कारण जो मोह, राग, द्वेष, उनका निराकरण करनेवाले हैं। आप मुनियों को यह अनवरत करना चाहिए। इसी का विस्तार करते हैं साधुओं के लिये हुए व्रतों में जो कोई अतिचार, अनाचार आदि दोष होते हैं, अथवा कोई भी अपराध होता है, तब उस दोष को दूर करने के लिये आचार्यदेव जो कुछ भी दण्ड देते हैं, वही प्रायश्चित्त कहलाता है । श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही मूलाचार में कहा है जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप का विशोधन होता है, वह तप ही प्रायश्चित्त नाम प्राप्त करता है। उसके दश भेद माने गये हैं। १. मूलाचार-अधिकार ५, गाथर १६४ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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