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________________ ३८८ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च "भत्तीराएण" भक्त्यनुरागाभ्यां श्रद्धाप्रीतिभ्याम्' इत्यर्थः । अन्यच्च"भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनरूपा, निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मभावनारूपा चेति ।" । ___ यत्र यत्र मनुष्याणां प्रीतिः, श्रद्धापि तत्र तत्रैव वृश्यते, यत्र यत्र च श्रद्धा, मनोऽपि तत्रैव स्थिरीभवति । तथैव चोक्तं श्रीपूज्यपावदेवेन यत्रैधाहितधीः पुंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते। यव जायते श्रद्धा, चित्तं सव लीयते ॥ अन्न रत्नत्रयभक्तेरन्तर्गता या सम्यग्दर्शनभक्तिः, सा सम्यक्त्वरूपा जिनेन्द्रभक्तिरेव, एतदेव वादिराजसूरिणा प्रोक्तमस्ति । तथाहि-- . कहा भी है "भत्तीराएण' भक्ति और अनुराग अर्थात् श्रद्धा और प्रीति से । अन्यत्र भी कहा है..... भक्ति पुनः सम्यक्त्व कहलाती है । वह भक्ति व्यवहार से सरागसम्य दृष्टियों के पंच परमेष्ठी की आराधनारूप है और निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्धात्मा की भावनारूप है।' जहाँ-जहाँ मनुष्यों की प्रीति होती है, श्रद्धा भी वहीं-वहीं देखी जातो है और जहाँ-जहाँ श्रद्धा होती है, मन भी बहीं स्थिर हो जाता है । यही बात श्री पूज्यपाददेव ने कही है..... जहाँ पर पुरुष का उपयोग लगता हैं, श्रद्धा वहीं पर उत्पन्न होती है और जहाँ पर श्रद्धा होती है, यह मन वहीं पर लीन हो जाता है । यहाँ पर रत्नत्रय भक्ति के अन्तर्गत जो सम्यग्दर्शन भक्ति है वह सम्यक्त्व रूप जिनेन्द्रभक्ति ही है। यही बात श्री वादिराजसूरि ने कही है । देखिये-- १. श्रुतभक्तिप्रात, टीका का अंश। २. समयसार गाथा १७३ रो १७६ तात्पर्यवृत्ति टीका से । ३. समाविशतक, श्लोक १५ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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