SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 नियमसार-प्राभंतम् शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा, भक्तिों छेदनधिसखावञ्चिका कृञ्चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो, मुक्तिद्वार परिदृढमहामोहमुद्राकवाटम् ॥ अत्र भक्त्यधिकारे प्रथमगाथायां ग्रन्थकारः श्रायकशब्दो गृहोतः, किंतु अस्याः प्राक् पश्चाद्वाद्योपान्तग्नन्थे क्वचिदपि न गृहोतः, प्रत्युत मुनीनामेव ग्रहणं दृश्यते । अनेन एतद् ज्ञायते यद् व्यवहारभक्ति कर्तुमधिकारस्तेषां श्रावकाणामपि वर्तते । किंतु निश्चयक्ति परमभक्ति कर्तुं मुनय एव क्षमा भवंति, न च श्रायकास्तेषां व्यवहारचारित्रमेव न पूर्ण सभवेत्, पुनः कथं निश्चयचारित्राबिनाभाविन्यो निश्चयक्रिया इति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां व्यवहाररत्नत्रयभक्ति पंचपरमेष्ठिना भक्ति ___ शुद्ध ज्ञान और पवित्र चारित्र के होने पर भी हे नाथ ! यदि उस पुरुष की आप में अनन्त सुख का देनेवाली कुंचिका (चाबी) के समान उत्तम भक्ति नहीं है, तब वह मुक्ति का इच्छुक भी पुरुष जिस पर खूब मजबूत महामोह का ताला लगा हुआ है, ऐसे मुक्ति के दरवाजे को भला कैसे खोल सकता है ? अर्थात् किसी मुनि के ज्ञान और चारित्र उत्तम हैं किन्तु यदि वह जिनेन्द्रदेव की श्रेष्ठ भक्ति नहीं करता है, तो वह सम्यक्त्व से शन्य हुआ मुक्ति के द्वार को नहीं खोल पाता है। ___इस भक्ति अधिकार में प्रथम गाथा में ग्रंथकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने 'श्रावक शब्द का ग्रहण किया है। किन्तु इस गाथा के पहले और अनन्तर शुरू से लेकर अन्त तक इस ग्रंथ में कहीं पर भी श्रावक शब्द का ग्रहण नहीं है। प्रत्युत मुनियों का हो ग्रहण देखा जाता है। इससे यह मालूम पड़ता है कि व्यवहार भक्ति करने का अधिकार उन श्रावकों को भी है, किन्तु निश्चय भक्तिरूप परमभक्ति को करने के लिये मुनि ही समर्थ होते हैं, न कि श्रावक । क्योंकि उनके तो व्यवहारचारित्र ही पूर्ण सम्भव नहीं है, पुनः निश्चयचारित्र के साथ ही रहने वाली ऐसी निश्चयक्रियायें उनके कैसे हो सकती हैं ? ऐसा जानकर प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार रत्नत्रय भक्ति को और पंचपरमेष्ठी की भक्ति को करते हुए आप सभी मुनि १. एकीभावस्तोत्र, पलोक १३ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy