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________________ ३९० नियमसार-प्राभृतम् च कुर्वाणैः युष्माभिः मुन्यायिकाश्रावकश्राविकाभिश्च निश्चयभक्तिभावना सततं भावनीया ।।१३४॥ गुगरपि न्यवहारनयाचितं भक्तिलक्षणं कुर्वन्त्याचार्यवर्याः मोकग्वंगयपुरिसाणं, गुणभेदं जाणिऊण तेसि पि । 'जो कुगादि परममति, यवहारमण परिकहियं ।। १३५।। मोयग्वंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिकण-सिद्धपदप्राप्तपुरुषाणां गुणानां भेदं भूतपूर्वनैगमनयेन नानागुणापेक्षया भेदं ज्ञात्वा । जो तेसि पि परमभत्तिं कुणदि-यो मुनिः श्रावको वा तेषामपि परमभक्ति भावपूर्वक करोति । ववहारण येण परिकहियंतस्यैव श्रावकस्य मुनेश्च व्यवहारनयेन इयं भक्तिक्रिया कथ्यते । इतो विस्तर:---यावन्तोऽपि महापुरुषा मोक्षगतास्तेषामपि क्षेत्रकालगतिलिलादिभेदापेक्षया द्वादशानुयोग दो दृश्यते । आयिका और श्रावक श्राविकाओं को सतत निश्चय भक्ति को भावना भाते रहना चाहिये । पुनरपि आचार्यवर्य व्यवहारनय के आश्रित भक्ति का लक्षण करते हैं अन्वयार्थ--(मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसि पि) मोक्ष को प्राप्त हुए पुरुषों के गुणभेद को जानकर उनकी भी, (जो परमत्ति कुणदि) जो परमभक्ति करते हैं, (ववहारणयेण परिकहियं) उनके व्यवहारनय से कथित भक्ति होती है। टीका-सिद्धपद को प्राप्त हुए सिद्ध परमात्मा के गुणों के भेदों को भूतपूर्व नैगमनय से नाना गुणों की अपेक्षा भेदों को जानकर जो मुनि या श्रावक उनकी भो भावपूर्वक परमभक्ति करते हैं, उनके ही व्यवहारनय से यह भक्ति क्रिया होती है। इसी का विस्तार करते हैं ---- जितने भी महापुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, उन सभी के भी क्षेत्र, काल, गति, लिंग आदि भेदों की अपेक्षा बारह अनुयोगों से भेद देखा जाता है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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