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नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च श्रीमदुमास्वामिभिः
"क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥
___ अस्य विशेषार्थस्तत्त्वार्थवातिकाविभाष्यनन्येभ्योऽवलोकनीयो भवति । इत्यं वित्र खन्ना तोकापा नदेवानी व गुणभेदप्तबद्धध तेषां गुणस्मरणं कारंकारं परमा भक्तिः कर्तव्या । एषा निर्वाणभक्तिर्व्यवहारनयापेक्षयैव ।
अथवा श्रीकुन्दकुन्ददेवैर्दशभक्तयो रचिताः, श्रीगौतमस्वामिभिः कृते द्वै भक्ती स्तः, तथा श्रीपूज्यपादस्वामिरचिता अपि दशभक्तयः प्रसिद्धाः संति, पर संख्यया द्वादश संति । मुनोनां प्रत्येकक्रियासु ता निर्धारिता आचारग्नन्थेषु । तथाहि--
प्रतिदिन त्रिसंध्यं देववन्दनायां चत्यपंचगुरुभक्ती, नंदीश्वरपर्वणि क्रियायां सिद्धनंदीश्वरपंचगुरुशांतिभक्तयश्चतस्रः, निर्वाणकल्याणकक्रियायां निर्वाणक्षेत्र
श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने कहा है
क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध, बोधित ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्ध परमेष्ठी साध्य हैं-जानने योग्य हैं। इसका विशेष अर्थ तत्त्वार्थवात्तिक आदि भाष्य-टीका ग्रंथों से देखना चाहिये।
__इस प्रकार सिद्धों के और तीर्थकर परमदेवों के गण भेदों को जानकर उनका गुणस्मरण करके परमभक्ति करना चाहिये । यह निर्वाण भक्ति व्यवहारनय की अपेक्षा से ही होती है।
__अथवा श्री कुन्दकुन्ददेव ने दश भक्तियाँ रची हैं, श्री गौतम स्वामी कृत दो भक्तियाँ हैं तथा श्री पूज्यपादस्वामी द्वारा रचित भी दश भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं. किन्तु वे संख्या में बारह हैं । मुनियों की प्रत्येक क्रियाओं में वे भक्तियाँ आचार ग्रंथों में निर्धारित की गई हैं । अर्थात् किस क्रिया में कौन-कौन सी भक्तियाँ करना चाहिये ? सो आचार ग्रंथों में बताया गया है । उसे ही कहते हैं
प्रतिदिन तीनों संध्याओं में देववन्दना क्रिया में चैत्य भक्ति, पंचगरु भक्ति करनी होती है। नन्दीश्वरपर्व में क्रिया में सिद्ध, नन्दीश्वर, पंचगुरु और शान्ति १. तत्त्वार्थस्सूत्र, अ० १०, सूत्र ९।