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नियमसार-प्राभतम् समयपर्यन्तम् । पारिणामिकभावः सर्वस्य संसारिणः सिद्धस्यापि । ननु क्षायिकभावः सिद्धस्यापि, तहि जीवस्य क्षायिकभावो नेति माथायां कथं कथ्यते ? युक्तमुक्तं भवद्भिः, परमत्र जीवस्य त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य विवक्षास्ति । किञ्च, शुद्धनिश्चयनयेन कदाचिदपि जीवस्य कर्मसबंधो नास्ति, पुनः कर्मणां क्षयात क्षायिकभावोऽपि कथं भवेत् ? अतो नास्ति एष भावः । किच-यदि जीवस्य बन्धनं नास्ति तहि मोक्षणमपि कथं सिद्धयेत् ? अतोऽत्र टंकोत्कीर्णज्ञायककभावस्य विवक्षितत्वात् क्षायिकभावोऽपि जीवस्य नास्ति इति आख्यायते श्रीकुन्दकुन्ददेवैः । पंचास्तिकायप्रन्ये एवमेव वर्तते, तथाहि
"कम्मेण विणा उदयं जीवस्त ण विज्जवे उवासमं वा।
खायं खोवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकवं ॥५८॥ अस्या व्याख्यायां श्रीअमतचन्द्रसूरिभिः कथितम्
"क्षायिकस्तु स्वभावयक्तिरूपत्वादनन्तोऽपि कर्मणः क्षयेनोत्पद्यमानत्वात् सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः ।"
अन्तिम समय तक रहता है। पारिणामिक भाव सभी संसारी जीवों में है और सिद्धों में भी है।
शंका--ये क्षायिक भाव जब सिद्धों में भी हैं तो पुनः जीव के क्षायिक भाव नहीं हैं ऐसा गाथा में कैसे कहा है ?
समाधान-आपने ठीक कहा है, किन्तु यहाँ जीव के कालिक उपाधि रहित स्वरूप की विवक्षा है। दूसरी बात यह है कि शुद्ध निश्चयनय से कदाचित् भी जीव के कर्म का सम्बन्ध नहीं है, पुनः कर्मों के क्षय से क्षायिक भाव भी कैसे होगा ? इसलिये. क्षायिक भाव नहीं है। तथा च, यदि जीव के बन्धन नहीं हैं तो छुटना भी कैसे होगा ? अतः यहाँ पर टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक भाव ही विवक्षित होने से "जीव के क्षायिक भाव भी नहीं है" ऐसा श्रीकुन्दकुन्ददेव ने कहा है।
पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी ऐसा ही कहा है। उसी को कहते हैं-"जीव में कर्म के बिना उदय, उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव नहीं होते हैं । इसलिये ये चारों भाव कर्मकृत हैं।"
_इसी की व्याख्या (टीका) में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी कहा है--"क्षायिकभाव यद्यपि स्वभावों की प्रकटतारूप होने से अनंत हैं, फिर भी कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ होने से सादि है, इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है ।