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________________ नियमसार - प्राभृतस् अयमत्राभिप्रायः — श्रोत रामचारित्राविनाभावि वीतरागसम्यक्त्वं संप्राप्य निश्चयरत्नत्रयस्वरूपे निर्विकल्पध्याने स्थित्वा सर्वसंकल्पविकल्परहितं परमपारिणामिकभावपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वमेत्र ध्यातव्यम् । यावत् तृशी शक्तिर्न भवेत् तावत् सरागचारित्रमवलम्ब्य निजात्मनो भावना भावनीया ॥४१॥ पुनः कर्मणामावे जीवस्य चतुर्गतिगमनादि कथं भवेत् ? छति प्रश्ने, तदपि नेति उत्तरयन्ति १३४ सूरयः चगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य । कुलजोणिजीवमग्गण ठाण। जीवस्स गो संति ॥ ४२ ॥ चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य-चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरण रोगशोकाश्च । कुलजो णिजीवमग्गणठाणा णो संति- कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि न सन्ति । कस्य ? जीवस्य - शुद्धबुद्धस्वभावस्य जीवस्य इति । यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि वीतराग चारित्र से अविनाभावी ऐसे बोतराग सम्यक्त्व को प्राप्त करके निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर सर्वसंकल्प विकल्प रहित, परम पारिणामिक भाव से परिणत निज शुद्धात्मतत्त्व का ही ध्यान करना चाहिये और जब तक ऐसी शक्ति नहीं होवे तब तक सरागचारित्र का अवलंबन लेकर अपनी आत्मा की भावना भानी चाहिये || ४१|| पुनः कर्मबंध के अभाव में जीव का चतुर्गतियों में गमन आदि कैसे सम्भव होगा ? ऐसा प्रश्न होने पर "वे भी नहीं हैं" आचार्य ऐसा उत्तर देते हैं अन्वयार्थ - - ( जीवस्स) जीव के ( चउगइभवसंभमणं ) चारों गतिरूप भव में परिभ्रमण, ( जाइजरामरणरोगसोका य) जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक (कुलजो णिजीवमग्गणठाणा ) कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान ( णो संति) नहीं हैं ॥४२॥ टीका - चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान ये सब शुद्ध बुद्ध एकस्वभाववाले जीव में नहीं हैं।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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