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नियमसार-प्राभृतम् नयविवक्षा बहुधा त्वया भणिता न च कुन्दकुन्ददेवैः, तहि कथं मन्येऽहम्, इति आशंका मा भवेत्, अतः स्वयमेव नयविवक्षां ब्रुवन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः--
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भगिदा दु ।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥४९।।
एदे सव्वे भावा-एते सर्वे भावाः, पूर्व ये भावा: जीवस्य न सन्ति इति प्रतिपादिताः ते सफला अपि कि सर्वथा न सन्ति ? नैतत्, दु ववहारणयं पडुच्च भणिदा-खलु निश्चयेन ते सर्वेऽपि व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः, व्यवहारनयापेक्षया जीवस्य विद्यन्त एव । तहि न सन्ति इति कथं कथितं भवद्भिः ? तदेव भूयताम, संसिदी सब्वे जीवा सुद्धणया सिद्धसहावा-संसतौ अस्मिन् संसारे सर्वे जीवा: शुद्धनयात् सिद्धस्वभावः इति । निगोदराशेः आरभ्य पंचेन्द्रियसंजिपर्यन्ता: निखिलाश्च धे संसारिणः नः से सर्वे कि शुद्धनयापेक्षया शुद्धाः सिद्धस्वभावा एव ।
तद्यथा-यद्यपि जीवस्य व्यवहारनयन अनादिकर्मबंधनवशात् स्वभाव
आपने नय विवक्षा को बहुत बार कहा है, न कि कुंदकुन्ददेव ने, पुनः मैं कैसे मान लूं ? ऐसी आशंका न हो जाये इसीलिये श्रीकुन्दकुन्ददेव स्वयं ही नयविवक्षा को कह रहे हैं
__ अन्वयार्थ (एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा) ये सभी भावं व्यवहारनय का आश्रय लेकर कहे गये हैं। (दु सुद्धणया संसदी सव्वे जीवा सिद्धसहावा) किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्धस्वभाव वाले हैं ।।४९।।
टीका-पूर्व में "जो भाव जीव के नहीं हैं। ऐसा कहा गया है वे सभी क्या सर्वथा नहीं हैं ? ऐसी आशंका होने पर समाधान करते हैं कि ऐसी बात नहीं है, निश्चय से वे सभी भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव के ही हैं । तो पुन: 'नहीं हैं' आपने ऐसा कैसे कहा ? उसी को सुनिये
इस संसार में सभी जीव शुद्धनय से सिद्धस्वभाव बाले हैं। निगोदराशि से लेकर पंचेन्द्रिय सेनी पर्यंत जितने भी संसारी प्राणी हैं, वे सभी शुद्धनय की अपेक्षा सिद्धस्वभाव वाले ही हैं। खुलासा इस प्रकार है कि यद्यपि जीव के व्यवहारनय से अनादिकालीन कर्मबंधन के निमित्त से स्वभाव विभाव स्थान से लेकर