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________________ नियमसार - प्राभृतम् तद्यथा—यथा सिद्धपरमेष्ठिनः अशरीराः अविनाशाः अतीन्द्रियाः निर्मलाः विशुद्धात्मानश्च सन्तः लोकाकाशस्य अग्रभागे तिष्ठन्ति तथैव अस्मिन् संसारे संसारिजीवा अपि अशरीराः, अविनाशाः, अतीन्द्रियाः, निर्मला विशुद्धात्मानश्च वर्तन्ते । कथमेतत् ? शुद्धनयेन तेषां शश्वत्कर्ममलविपाकाशयेरस्पृष्टत्वात् । टीकाकारैरपि उक्तं - " केनचिन्नयबलेन संसारिजीवाः शुद्धाः" इति । १५.० + इदमन्त्र तात्पर्यम् - सम्यग्दृष्टिर्जीयः शुद्धनयेन निजशुद्धस्वरूपं विज्ञाय परमप्रमोदं प्राप्नुवन् सन् तत्रैव स्थातुं वाञ्छति । तथापि यावत् निर्विकल्पो न भवेत् नावत् व्यवहारनयमाश्रित्य शुद्धसिद्धजीवान् आराधयत् सन् गुरूणां कृपाप्रसादेन व्यवहारचारितेन च गम्य स्वात्मोपलब्धि करोति क्रमेण । एवं ज्ञात्वा सततं निजपरमात्मतत्त्वं ध्येयं कृत्वा पूर्वावस्थायां पञ्चपरमेष्ठिनः ध्यानं विधातव्यमिति ॥ ४८॥ जैसे सिद्ध भगवान् अशरीरी, अविनाशो, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धस्वरूप होते हुए लोकाकाश के अग्रभाग पर विराजमान हैं, वैसे ही इस संसार में संसारी जीव भी अशरीरी, अविनश्वर, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्ध स्वरूप वाले हैं । शंका- यह बात कैसे है ? समाधान - शुद्धनय से ये सभी संसारी जीव हमेशा कर्ममल के विपाकरूप परिणामों से अस्पृष्ट हैं। टीकाकार श्रीपद्मप्रभमलधारी देव भी कहते हैं- "किसी नय के बल से संसारी जीव शुद्ध हैं ।" यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध नय से निजशुद्धस्वरूप को जानकर परमप्रमोद को प्राप्त होता हुआ उसी में ठहरना चाहता है। फिर भी जब तक वह निर्विकल्प नहीं होगा, तब तक व्यवहारनय का आश्रय लेकर शुद्ध सिद्ध जीवों . की आराधना करता हुआ गुरुओं के प्रसाद से व्यवहारचारित्र के बल से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करके क्रम से अपनी आत्मा की उपलब्धि कर लेता है। ऐसा जानकर सतत निज परमात्मतत्त्व को ध्येय बनाकर प्रारंभिक अवस्था में पंचपरमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए ||४८||
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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